भारत का इतिहास

Archive for फ़रवरी 15th, 2009

भारतीय इतिहास के प्राचीनतम वैभव की परिकल्पना को तब जोरदार बल मिला जब १९२१ मे दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा की खुदाई की गई।  2500 ई. पू.. के लगभग भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग से एक ऐसी विकसित सभ्यता का ज्ञान 1921 ई. में लोगों के समक्ष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो केन्द्रों की खुदाई से आना आरम्भ हुआ जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की प्राचीनतम अन्य सभ्यताएं अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट जाती है। इस सभ्यता के ज्ञान से भारतीय इतिहास का आद्यैतिहासिक काल बहुत पहले चला जाता है। यह इस देश का गौरव रहा है कि पश्चिमी विश्व जब जंगली सभ्यता के आंचल में ढँका था तो एशिया महाद्वीप के इस भारत देश में एक अत्यन्त विकासमान सभ्य लोग रहते थे। इनका ज्ञान पुस्तकों से नहीं, उनकी लिखित सामाग्रियों से नहीं और न उनके पठनीय लेखों से अपितु वहां कि उत्खनित सामाग्रियों से प्राप्त होता है। उनकी सभ्यता में धर्म का पक्ष अत्यन्त समुन्नत था। एशिया की समकालिक अन्य पुरातन सभ्यताओं मिश्र, बाबुलोनियाँ आदि में धर्म का वह बहुविधीय स्वरूप हमें नहीं मिलता न इतना वैज्ञानिक पैठ ही मिलता है जितना हड़प्पा की सभ्यता में।

इस सभ्यता का उदय सिंधु नदी की घाटी में होने के कारण इसे सिंधु सभ्यता तथा इसके प्रथम उत्खनित एवं विकसित केन्द्र हड़प्पा के नाम पर हड़प्पा सभ्यता एवं आद्यैतिहासिक कालीन होने के कारण आद्यैतिहासिक भारतीय सभ्यता आदि नामों से जानते  हैं। इनका विस्तार बलुचिस्तान, सिन्ध, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि विस्तृत क्षेत्र में था। ऐसा उत्खनन से ज्ञात होता है। इन सभी क्षेत्रों में स्थिति केन्द्रों की खुदाई से समान सभ्यता के अवशेष मिलते है। अतः इस व्यापक भाग में उस समय हड़प्पा धर्म अवश्य ही पल्लवित रहा होगा।

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हड़प्पा धर्म के स्वरूपों के विषय में प्राप्त जानकारी के अनुसार उसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न ज्ञात होती हैं-

1.    इस सभ्यता में प्रकृति से चलकर देवत्व तक की यात्रा धर्म ने तय की थी। एक ओर हम वृक्ष पूजा देखते हैं तो दूसरी ओर पशुपति शिव की मूर्ति तथा व्यापक देवी पूजा।

2.    यहाँ देवता और दानव दोनों ही उपास्य थे। देव मूर्तियों के अतिरिक्त अनेक दानवीयस्वरूपों का यहाँ के ठीकड़ों या मुहरों पर आरेखन इस बात का परिचायक है। वृक्ष से लड़ता शेर दानवीय भावना का उदगार ही तो कहा जा सकता है।

3.    धर्म में आध्यात्म और कर्मकाण्ड दोनों ही यहां साथ उभरे हैं। यहाँ से प्राप्त धड़ विहीन ध्यानावसित संन्यासी की आकृति एक ओर आध्यात्मिक चेतना को उजागर करती है तो दूसरी ओर देवी के सम्मुख पशुबलि के लिए बँधे बकरे की आकृति जो ठिकड़े पर अंकित है कर्मकाण्ड की गहनतम भावना का घोतक है।

4.    उपासना इसका एक व्यापक अंग रहा है। नृत्य संगीत आदि के बीच देवी की पूजा को प्रदर्शित करने वाला ठिकड़ा भी यही व्यक्त करता है।

5.    कुछ ऐसे धर्मों की जानकारी यहाँ के ठिकड़ो से मिलती हैं जिसकी सूचना इस सभ्यता के पतन के लगभग एक हजार वर्ष बाद हमें लिखित  साहित्य प्रदान करते हैं जैसे मातृ देवियों की उपासना।

6.    प्रतीकों को धर्म में स्थान प्राप्त हो चुका था। सूर्य की तरह गोल रेखा वाली उभरती आकृति, स्वस्तिक आदि इस तथ्य के पोषक हैं कि भले ही विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं मिली पर वैष्णव धर्म के प्रतीक यहाँ विद्यमान थे।

7.    धार्मिक मान्यता और विश्वासों का यह युग था। यहाँ शिवलिंग के नीचे गड़े ताबीजों की तरह के पत्थर के टुकड़े मिले हैं। जिसके एक किनारे पर छिद्र बने हैं। सम्भवतः शिव के द्वारा अभिमंत्रित करने के लिए ही ये लिंग के के नीचे गाडे़ गये होंगे। अन्य कुछ ठिक़डो में मानव देवताओं के साथ नृत्य संगीत तथा धार्मिक उत्सवों को मना रहे हैं।

8.  मंत्र-तंत्र में भी इनका विश्वास रहा होगा। मुहरों  पर बने चिन्हों के ऊपर कुछ अपठनीय लिपि में लिखा है। इसे कोई चित्रांकित लिपि कहता है, कोई मात्र रेखा समूह मानता है। पर ये मंत्र रहे होगें। कुछ मुहरों पर तो विचित्र रेखाएं बनाई गई हैं मानो आज के जंत्र-तंत्र हो।

9.  लोक-धर्म का भी यहां चलन था। कुछ मुहरों पर घेरों के भीतर वृक्ष में कुछ में फण निकाले नाग की आकृति आदि लोकजीवन की धार्मिक भावना को व्यक्त करते हैं।

प्रमुख धार्मिक स्वरूप

(1)    शैव धर्म

(i) पशुपति मूर्ति :- यहाँ एक मुहर मिली है। इस पर एक तिपाई पर एक व्यक्ति विराजमान है। इसका एक पैर मुड़ा है और एक नीचे की ओर लटका है। इसके तीन सिर हैं तथा सिर पर तिन सींग हैं। इसके हाथ दोनों घुटनो पर हैं तथा इसकी आकृति ध्यानावस्थित है। इसके दोनों ओर पशु हैं। इसकी छाती पर त्रिशूल की आकृति अंकित हैं। मार्शल के अनुसार सिंधुघाटी  से मिली यह मूर्ति आज के शंकर भगवान की है। मैके ने भी इसे शिव की मूर्ति माना है। कुछ लोग इसे पशुपति की मूर्ति मानते हैं। जो भी हो या शिव के पशुपति रूप की मूर्ति निर्विवाद लगती है। इसके तीन सिर शिव के त्रिनेत्र के द्योतक हैं तथा तीन सींघ शिव के त्रिसूल के प्रतीक स्वरूप है।

(ii) नर्तक शिव :- यहाँ से प्राप्त दो कबन्ध प्रस्तर मूर्तियाँ जो पैरों की भावभंगिमा के कारण नृत्य की स्थिति का बोध कराती हैं नर्तक शिव की मानी जाती हैं। कुछ इतिहासकारों ने इन्हें नृत्यमुद्रा में उर्ध्वलिंगी होने का भी अनुमान लगाया है।

(iii) योगी शिव :- यहाँ के एक मुहर पर योग मुद्रा में ध्यान की स्थिति बैठे शिव की आकृति का अंकन है। इसके सामने दो तथा दोनों बगल में बैठी एक-एक सर्प की आकृति बनी है।

(iv) बनचारी शिव :- शिव का एक रूप बनवासी का भी होता है। यहाँ एक मुहर पर तीर-धनुष चलाते हुए एक आकृति मिली है। इसे शिव का बनचारी रूप माना जाता है।
 
(v) लिंग पूजा :- बड़े तथा छोटे शिव लिंग यहाँ बहुत से मिले हैं। कुछ के ऊपर छेद हैं जैसे ये धागा में पिरोकर गले में पहनने के काम आते होंगे। बड़े लिंग चूना पत्थर और छोटे घोंघे के बने हैं। इनकी पूजा विभिन्न समुदायों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से करने का अनुमान लगाया जा सकता है।

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इन विविध प्रकार की शिव मूर्तियों की प्राप्ति के आधर पर अनुमान किया जा सकता है कि

(अ) शिव आर्यों के पूर्व भारत के मूल निवासियों, जंगली कबीलों तथा आर्येतर जातियों के देवता प्रारम्भ से रहे हैं। इसी से इनका रंग काला था  जबकि आर्य गौर वर्ण के थे। अगर यह आर्यों के देवता रहे होते तो इनका भी रंग गोरा ही वर्णित होता। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जंगली पशु उनके साथ जुड़े हैं जैसे सर्प, सांढ़ आदि। जंगली कबीलों के लोग शक्तिशाली होते हैं तभी शिव शक्ति के देवता के रूप में भी भारतीय जीवन में घुल-मिले हैं। इनके साथ लगा होता है वाहन नन्दी, बैल जो शक्ति का प्रतीक है। सांप भी इसी प्रकार का एक जुझारू जीव इनके साथ जुड़ा है। ये बलशाली और वन्य पशु हैं जो शिव के साथ जुड़े होते हैं।

(ब) शिव को उत्पादन के देवता के रूप में भी पूजा जाता था। शिव के साथ सांढ़ का साहचर्य उनके उस काल के उत्पादक देवता होने का बोधक है । आज भी कृषि में उत्पादन के लिए सांढ़ों तथा बैलों का प्रयोग किया जाता है। शिवलिंग का यहाँ मिलना डॉ.डी.डी. कौशम्बी के अनुसार, उत्पादन का द्योतक है।

(स) प्राचीन भारत में शिवपूजा का श्रीगणेश हड़प्पा निवासियों के समय से ही माना जाता सकता है। शिव के विविध रूप मानवाकृति, लिंगायत, पशुपति आदि इसी समय से प्रचलन में आ चुके थे। यही पीछे चलकर हिन्दू शैव परिवार में अलग-अलग धार्मिक सम्प्रदायों के रूप में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिए।

(द) योग मुद्रा की शिव मूर्तियों से स्पष्ट है कि योग क्रिया का विकास भी शिव के साथ जुड़ा है। यह मान्यता है कि उनकी योगसाधना अनादिकाल से चली आ रही है। योग कि विधि का भी बहुत कुछ ज्ञान यहां से उनकी प्राप्त विभिन्न योग मुद्राओं की मूर्तियों से परिलक्षित होता है। यहाँ से आगे चलकर पशुपति योग का विकास हुआ। यहाँ से प्राप्त संन्यासी की धड़ मूर्ति जिसकी आंखें अर्ध निमीलित हैं, ध्यान केन्द्रित है तथा उसकी आंखे नासिकाग्र पर टिकी हैं आदि विशेषताएं ही योग साधना का पहला आधार बना होगा। यही योग का पहला चरण है। अतः योग का प्रारम्भ भी शैव धर्म का देन रहा होगा।

(य) शंकर का नाम पौराणिक काल में भूतनाथ प्रसिद्ध हुआ। पर भूत-प्रेतों के प्रति लोगों का विश्वास सिंधु सभ्यता के समय से ही उभर चुका था और सम्भव है कि उस समय शंकर ही उनके स्वामी रहे हों। तब भी शुभ-अशुभ प्रभावों की मान्यताएं थीं। इनसे बचने के लिए योनिपूजा भी सिन्धु सभ्यता में प्रचिलित थी। कुछ विशिष्ट बीमारियों का संकेत यहां से उपचारात्मक सामग्रियों के प्राप्ति से होती है जैसे बारहसिंगे की सींग का भस्म आदि इनसे छुटकारा पाने के लिए ही छोटे-छोटे लिंगों को योनि के साथ ताबीज की तरह गले में धारण करते होंगे। इसी से सिंधु घाटी में बहुत से ऐसे योनि युक्त शिवलिंग के तरह की कोणाकार पत्थर का आकृतियां मिली हैं जिनके ऊपरी भाग में सम्भवतः धागा पिरोने के लिए छिद्र बने हैं। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि बीमारियों का सम्बन्ध भी तब शिव से माना जाता होगा तथा उनके उपचार के लिए शिवलिंग का धारण करना टोटका के रूप में मानते होंगे।

(2) वैष्णव धर्म

स्पष्ट से तो नहीं कहा जा सकता है कि हड़प्पावासी वैष्णव धर्म को मानते थे क्योंकि विष्णु या उनके अवतारों की मूर्तियां यहां नहीं मिली हैं। पर वहाँ से प्राप्त कुछ मुहरों पर बनी स्वस्तिक की आकृति तथा सूर्य का चिन्ह इस बात का द्योतक है कि पीछे वैष्णव सम्प्रदाय के विकास के साथ जुड़ने वाले ये प्रतीक बीज रूप में जुड़े थे। अतः वैष्णव सम्प्रदाय वहां अस्तित्व में भले ही विकसित रूप में न आया हो पर इसका बीजारोपण इस समय हो चुका था इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

(2)    शाक्य सम्प्रदाय

शक्ति पूजा प्राची विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं में होती रही है तभी शक्ति को आदिशक्ति माना जाता है। सिंधुघाटी से भी देवी की उपासना के चिन्ह प्राप्त होते हैं। सिन्धु सभ्यता में एक मुहर पर अंकित एक स्त्री की नाभि से निकला हुआ कमलनाल दिखाया गया है। यह उत्पादन एवं उर्वरता का बोधक होता है। शक्ति की उपासना पृथ्वी पूजा से जुड़ी है। वहीं से मातृदेवी की उपासना का प्रारम्भ माना जाता है। यहाँ इन सभी का सम्बन्ध पृथ्वी देवी से और पौधों का सम्बन्ध उर्वरता तथा सृजनशीलता से जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार की एक मूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें देवी पालथी मारे बैठी है  और उनके दोनों ओर पुजारी भी बैठे हैं तथा इसके सिर पर एक पीपल  का वृक्ष उगा है। इसको भी उत्पादकता का ही प्रतीक माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में मातृदेवियों की मूर्तियों का यहां मिलना द्योतक है कि ये लोग देवी के उपासक थे इनकी देवियाँ अविवाहित कन्याएँ होती थीं क्योंकि उनके स्तन सामान्य उभार के तथा गोल और अविकसित दीखते हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों तथा केशविन्यास से सज्जित देवियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विविध देवियों की मान्यता यहाँ रही होगी अन्यथा सर्वत्र एक ही प्रकार की देवी मूर्तियाँ प्राप्त होतीं। एक बात और ज्ञात होती है कि ये प्रकृति को मातृदेवी के रूप में मानते थे तभी देवियों के साथ प्रकृति अवयव यहाँ जुड़ा मिला है। प्रकृति के ही सहारे जीव का पोषण होता है सम्भवतः ऐसा इनका विश्वास था।

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एक मुहर पर सात औरतों की खड़ी आकृतियाँ  बनी हैं और उनके सामने एक बकरा बँधा है जिसके पीछे लोग ढोल बजाते हुए नाच रहे हैं। देवी उपासना की पौराणिक परम्परा में सप्तमातृका एवं नवमातृका के उपासना का वर्णन मिलता है। यहाँ भी सप्तमातृका के उपासना का बोध होता है इस मुहर पर सात औरतों का अंकन इसका बोधक है। दूसरी ओर पौराणिक शाक्तधर्म में देवी के लिए पशुबली की मान्यता समाज  में प्रचिलित है। यहाँ एक मुहर पर बँधा बकरा बलि के लिए उपस्थिति प्रतीत होता है। पौराणिक देवी पूजन का आरम्भ इसे मान सकते हैं। यहाँ से प्राप्त नारी मूर्तियों में एक विशेषता मुख्य रूप से दीखती है  कि वे निर्वस्त्र हैं। निर्वस्त्रता प्रकृति के खुलेपन तथा उत्पादन का बोधक है। इससे हम कह सकते हैं कि ये प्रकृति को मातृदेवी मानकर उपासना करते थे इनकी पुष्टि यहां के एक मुहर पर प्राप्त एक देवी की मूर्ति से होती है जिसके सिर पर चील की तरह एक पक्षी पंख फैलाए बैठा है। लगता है कि वह मातृदेवी की रक्षा कर रहा हो।

(3) वृक्ष-पूजा

पौराणिक काल से पीपल, नीम, आंवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती है तथा इससे सम्बन्धित अनेक त्योहारों की मान्यता भी दी गई है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा का चलन था तभी वहाँ से प्राप्त ठीकरों पर अनेक वृक्षों की आकृतियाँ अंकित हैं। इनसे पत्तों के आधार पर पीपल के वृक्ष की पहचान तो हो जाती है पर यह असंभव नहीं कि इसी प्रकार अन्य वृक्षों की भी महत्ता इस समय रही हो। एक ठिकड़े पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दीखती हैं। दीर्घायु, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के कारण आज की तरह उस, समय भी संभवतः पूज्य मान लिया गया होगा। सम्भवतः तब से अब तक उसकी धार्मिक महत्ता बनी रही।

 ऋग्वेद में अश्वत्थ की महत्ता का उल्लेख भी पीपल का ही बोधक है। दूसरी मुहर पर देवता की नग्न मूर्ति बनी है। उनके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएं अंकित हैं। यहां की एक मुहर वन्दना की मुद्रा में झुकी एक मूर्ति है जिसके बाल लम्बे हैं। उसके पीछे मानव के चेहरे वाले वृष तथा बकरे की मिली जुली आकृति अंकित है। सामने पीपल का पेड़ है लगता है कि ये पशु वृक्ष देवता के वाहन के रूप में अंकित किए गए हैं। शुंगकला में सांची तथा भरहुत में ऐसे वृक्ष देवियों की अनेक आकृतियाँ अंकित हैं जिन्हें दोहद की अवस्था में अंकित यक्षिणी कहा जाता है। इन भिन्नताओं के आधार पर डॉ. मुखर्जी के अनुसार वहां पर दो प्रकार की वृक्ष-पूजा प्रचलित थी-एक वृक्ष की पूजा तथा दूसरे वृक्ष अधिदेवता की पूजा।

(4) पशु-पूजा

वहां कि मुहरों पर अनेक प्रकार के पशुओं का अंकन मिला है। विविधता और संख्या में पशु अंकन की अधिकता को देखकर ऐसा लगता है कि ये पशुओं को देवता का अंश मानते थे। यह विश्वास है कि पहले पशुओं के रूप में देवताओं को स्वीकार किया जाता था। पीछे इनका मावनवीय रूप अंगीकार किया गया। इसीसे देवता प्रत्येक पुरातन सभ्यता में पशु-पूजा का चलन मिलता है। इसका प्रमाण है कि प्रायः प्रत्येक देवता के साथ एक वाहन का जुड़ा होना आज भी स्वीकार किया जाता है। दूसरे इस सभ्यता में हम देखते हैं मनुष्यों के रूप में निर्मित देवताओं के सिर पर सींग धारण करने की कल्पना यहां किया गया था। सींग को शक्ति का प्रतीक माना जाता था इसीसे इसको मानव रूप धारी देव भी कहते थे। इसीलिए आज जिन्हें हम देवतावाहन मानते हैं जैसे-गैंडा, बैल, हाथी, भैंस, कुत्ता आदि इनके भी चित्रण यहां की मुहरों पर मिलते हैं।

बैल की पूजा विशेष रूप से यहां होती होगी क्योंकि इसके विविध प्रकारों का अंकन यहां के मुहरों पर बहुतायाद से दीखता है जैसे एक श्रृंगी, कूबड़दार, लम्बी लटकी लोरदार आदि। लगता है शिव के साथ बैल का सम्बन्ध इसी सभ्यता से शुरू हुआ था क्योंकि यहां इन दोनों की साथ आकृतियाँ मुहरों पर बहुलता से अंकित मिलती हैं। कुछ पशु ऐसे भी बने हैं जो काल्पनिक प्रतीत होते हैं। आज भी उनका वास्तविक शिवरूप प्राप्त नहीं होता। इनमें हम ऐसे पशुओं को ले सकते हैं जिनकी रचना विभिन्न पशुओं के अंगों के योग से की गई हैं। अन्यथा ये मानव और पशु की मिली जुली मूर्ति हों। एक ठिकड़े पर मानव सिर से युक्त बकरे की आकृति है। एक पर ऐसा पशु है जिसका सिर गैंडे का पीठ किसी दूसरी पशु की पूंछ किसी अन्य पशु की है। कुछ पशुओं की ऐसी आकृतिया यहां बनी हैं जिनके सामने नाद बना है और वे उसमें से कुछ खाते हुए दीखते हैं। कितने पशुओं की खोपड़ी धूपदानी की तरह कटोरानुमा बनी है। इनमें सम्भवतः पूजा के समय धूप जलाया जाता होगा क्योंकि उनके किनारों पर धुंए के चिन्ह पड़े हैं। लगता है कि पशु-पूजन में धूप जलाने का भी प्रचलन था।

(5)    जैन धर्म

सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियाँ विशेष रूप से मिलती हैं। ‘वृषभ’ का अर्थ है बैल। आदिनाथ या वृषभनाथ जो जैन धर्म के प्रवर्तक थे उनका चिन्ह बैल है। सिंधु घाटी से प्राप्त बैल की आकृति सूचक है कि उस समय जैनधर्म का बीजारोपण हो चुका होगा। यहां से प्राप्त एक नंगी कबन्ध मूर्ति जो ग्रेनाइट पत्थर की बनी है उसे कुछ विद्वान जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्ति मानते हैं क्योंकि जैनियों कि नग्न मूर्तियों की तरह यह है। दिगम्बर समुदाय वाले जैन भिक्षु नग्न ही रहते हैं। तीसरे यहां की एक मूर्ति को मार्शल ने कार्योत्सर्ग नामक योगासन में खड़ा बतलाया है। इससे लगता है कि योग की क्रिया जो जैनियों में व्यापक थी यहीं से प्रारम्भ हुई। इसलिए भी यह माना जा सकता है कि उक्त मूर्ति का सम्बन्ध जैन धर्म से रहा होगा।

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मान्यता और विश्वास

(अ)-स्वच्छता– इसके ये पुजारी थे। इसी से यहां विशाल स्नानागार तथा गर्म स्नानागार बने हैं। ये सामूहिक स्नान के लिए बनाए गए। व्यक्तिगत स्नान के लिए प्रत्येक घर के आंगन में स्नानगृह होता था। लगता है उत्सवों तथा पर्वों पर आज के पौराणिक धर्म की मान्यता की तरह लोग सामूहिक स्नान करते होंगे। तभी विशाल स्नान घर की आवश्यता पड़ी होगी।

(ब) मृतक संस्कार– मृतक क्रिया में इनका विश्वास था। मरने के बाद ये शरीर की क्रिया करते थे। उसे गाड़ते या जलाते थ। जलाने के बाद बची हुई हड्डियों को एकत्रित करके किसी बर्तन में रखकर उसे प्रवाहित कर देते थे। कभी-कभी तो इसे गाड़ भी देते थे। जिन मृतकों को गाड़ते थे उनके साथ उनकी प्रिय वस्तुएं भी गाड़ दी जाती थीं। यही प्रथा प्राचीन मिश्र के पिरामिडों में भी दीखती है। इसका प्रमाण है कि हड़प्पा और बलुचिस्तान में सर्वांगीण शव-निखात प्राप्त हुए हैं।

(स) जादू-टोना– यहां से प्राप्त टिकटों पर कुछ लिखा हुआ है। लगता है ये जादुई मंत्र होंगे। इनके द्वारा लोग अपने कार्यों को सिद्ध करते होंगे। इसी प्रकार लिंगों के नीचे गड़े ताबीज जिन पर कुछ अंकित है जादू की क्रिया का होना सिद्ध करते हैं। सम्भव है ये ताबीजों को इसलिए पहनते होंगे कि भवबाधा इन्हें न सतावे। इसी प्रकार कुछ ऐसे ठिकड़े भी मिले हैं जिन पर विचित्र प्रकार के चिन्ह बने हैं। ये तांत्रिक चिन्हों की तरह हैं जिस प्रकार का प्रयोग आज तंत्र में होता है। लगता है कि इनको विश्वास था कि इनके द्वारा बाधाओं के निराकरण में सहायता मिलती है।

(द) बलि प्रथा– देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता था। इसके संदर्भ में जैसा हमने ऊपर देखा है कि सप्तमातृकाओं के सामने एक बकरा बंधा है, यह बलि पशु ही रहा होगा।

(ग) धार्मिक पर्व और उत्सव – यहां कुछ मुहरों पर नृत्य,. संगीत के सामूहिक अवस्था का अंकन हुआ है। लगता है किसी विशेष उत्सव या पर्व पर इस प्रकार के सामूहिक आमोद-प्रमोद की अवस्था का चलन था। सामूहिक स्नान के लिए जलकुण्डों का होना सिद्घ करता है कि उस समय पर्व मनाए जाते थे जहां लोग एक साथ एकत्रित होकर आज की पौराणिक मान्यता की तरह सामाजिक रूप से स्नान आदि धार्मिक क्रियाएं करते होंगे।

भारतवर्ष प्राचीन काल से ही सुसंस्कृत तथा उन्नत देश रहा है। इसकी सैन्धव सभ्यता विश्व के किसी भी देश की सभ्यता से कम महत्त्व की नहीं थी। इसकी धरती पर ही भगवान बुद्ध जैसे महापुरुष पैदा हुए जिन्होंने सम्पूर्ण विश्व को ही अपना कुटुम्ब माना तथा समस्त जीवों पर दया करने का शाश्वत सन्देश दिया। यहीं देवानांप्रिय अशोक ने शासन किया जिसने शक्ति के बल पर नहीं, प्रेम-बल पर अपने साम्राज्य का विस्तार किया और जन-जन के हृदय का सम्राट् बन गया। बंगाल के पाल नरेशों एवं थानेश्वर के राजाओं के काल में भारतवर्ष में ऐसी प्रोन्नत शिक्षा-प्रणाली तथा शिक्षण संस्थाओं का संगठन हुआ कि संसार के विभिन्न देशों के जिज्ञासु छात्र और ज्ञान-पिपासु विद्वान्, अपनी मानसिक बुभुक्षा की तृप्ति तथा ज्ञान-प्राप्ति के लिए यहाँ आये।

कालान्तर में समय ने पलटा खाया और भारतवर्ष पर मुसलमानों का शासन-भार लद गया। आरम्भिक मध्य युगों में तुर्क और बाद में चुगताई-मुगल स्थायी साम्राज्य स्थापित कर शासन करने लगे। स्थायी शासन के पूर्व एवं मध्य भाग में भारत पर कई अस्थायी एवं तूफानी आक्रमण हुए। पल्लवों, शकों और हूणों की घुसपैठ अल्पकालीन सिद्ध हुई। सिकन्दर, नादिरशाह और अहमदशाह अब्दाली के तूफानी आक्रमण हुए और समाप्त हुए। स्थायी रूप से तुर्क और मुगल ही शासन कायम कर सके। अनेकों का खून बहाकर और सदियों तक शासन करके भी मुस्लिम विजेता भारतीय संस्कृति को विकृत न कर सके। इसके विपरीत, वे भारतीय संस्कृति के रंग में रंगते गये। अपने विदेश स्थित ठिकानों से उन्होंने अपने पुराने सम्बन्धों को तोड़ डाला और भारतीयों के साथ अपना भाग्य जोड़ डाला।

जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं ने उन्हें अपनी प्रजा के साथ अधिकाधिक सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने को विवश किया। नये वातावरण के अनुसार और प्रशासन के हित में, उन्होंने शासन और व्यवस्था सम्बन्धी अपने सिद्धान्तों तथा मान्यताओं में भी परिवर्तन किये। अपने कितने ही विदेशी रीति-रिवाजों को उन्होंने त्याग दिया और भारतीय जीवन तथा सुंस्कृति के तत्त्वों को ग्रहण कर लिया। केवल कहने भर को भारतीय गौरव और देश का इतिहास उनकी तलवार तथा धर्म (इस्लाम) के सामने श्रीहीन हुआ था। वे भारतीय बन गए थे, भारत उनका देश हो चुका था। डॉ. राममनोहर लोहिया ने लिखा है : ‘राम और रहीम एक थे, हिन्दू और मुसलमान एक ही धरती की दो सन्तानें थीं।’

मुस्लिम शासकों ने भारतीय संस्कृति एवं प्रशासन के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान किया। गियासुद्दीन बलवन ने संप्रभुता का सिद्धान्त दिया, अलाउद्दीन खिलजी ने उत्तरी तथा दक्षिण भारत के विविध राज्यों को जीतकर अखिल भारत का संदेश दिया, शेरशाह सूरी श्रेष्ठ प्रशासन की स्थापना करके ब्रिटिश शासकों का भी आदर्श बन गया, अकबर ने हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं समन्वय का सद्प्रयास किया और शाहजहाँ ने कलात्मक उन्नति एवं श्रेष्ठता को पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया।किन्तु इस शासन में भी भारतीयता का आधार यथावत् रहा। यद्यपि मुस्लिम आधिपत्य के कारण भारत के प्राचीन समाजों में कई राजनीतिक तथा सांस्कृतिक परिवर्तन आये, तथापि उसकी प्राचीन संस्कृति का आधार और स्वरूप अधिकांशतः ज्यों-का-त्यों रहा। भारतीयों ने नवागन्तुकों को प्रभावित किया और वे उनसे प्रभावित भी हुए। ‘उन्होंने विजताओं द्वारा प्रचलन में लाई गई नई सामाजिक पद्धतियाँ सीखीं।

कट्टर एकेश्वरवाद और समतावादी समाज पर बल देने वाले इस्लाम धर्म के प्रभाव ने कतिपय प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न की, और हिन्दू धर्म तथा सामाजिक पद्धतियों में एक आलोड़न पैदा हुआ। मुसलमानों की भाषाओं और साहित्यों ने हिन्दुओं की वाणी और लेखन पर व्यापक प्रभाव डाला। नये शब्द, मुहावरे और साहित्यिक विधाओं ने इस देश की धरती में जड़े जमाई और नये प्रतीकों तथा धारणाओं ने उनकी विचार-शैली को सम्पन्न किया। एक नई साहित्यिक भाषा विकसित हुई और कितनी ही मध्युगीन वास्तुकला, चित्रकला और संगीत कलाओं के साथ-साथ अन्य कलाओं में भी भारी परिवर्तन आये और ऐसी नई शैलियों ने जन्म लिया, जिनमें दोनों के ही तत्त्व विद्यमान थे। तेरहवीं शताब्दी में यह जो प्रक्रिया आरम्भ हुई, वह पाँच सौ वर्ष तक चलती रही।1

तीसरे चरण में भारत के इतिहास में परिवर्तन आया। भारतीयों की फूट तथा विघटनकारी तत्त्वों के कारण अठारहवीं शताब्दी में भारत पर अंग्रेजों का प्रभुत्व जम गया। भारत के इतिहास में लगभग पहली बार ऐसा हुआ कि इसके प्रशासन और भाग्य-निर्णय की डोर एक ऐसी विदेशी जाति के हाथों में चली गई, जिसकी मातृभूमि कई हजार मील दूर अवस्थित थी। इस तरह की पराधीनता भारत के लिए एक सर्वथा नया अनुभव थी, क्योंकि यों तो अतीत में भारत पर कई आक्रमण हुए थे समय-समय पर भारतीय प्रदेश के कुछ भाग अस्थायी तौर पर विजेताओं के उपनिवेशों में शामिल हो गये थे, पर ऐसे अवसर कम ही आये थे और उनकी अवधि भी अत्यल्प ही रही थी।

भारत पर अंग्रेजों ने एक विदेशी की तरह शासन किया। ऐसे कम ही अंग्रेज शासक हुए जिन्होंने भारत को अपना देश समझा और कल्याणकारी भावना से उत्प्रेरित होकर शासन किया। उन्होंने व्यापार और राजनीतिक साधनों के माध्यम से भारत का आर्थिक शोषण किया और धन-निकासी (drain  of wealth)  नीति अपनाकर देश को खोखला कर डाला। उन्होंने भारतीयों के नैतिक मनोबल पर सदैव आघात किया। इस काल के इतिहास के पन्ने, इस बात को सिद्ध करते हैं कि एक ओर जहाँ ब्रिटिश सत्ता के भारत में स्थापित हो जाने के बाद देश में घोर अन्धकारपूर्ण और निराशाजनक वातावरण स्थापित हो गया, वहाँ दूसरी ओर

इस देश के प्रति इंगलैण्ड की अधिकार लिप्सा की भावना उभरने लगी तथा अंग्रेज लोग भारत को अपने अधिकार की वस्तु और सब प्रकार से पतित देश मानने लगे। भारत का उपयोग इंगलैण्ड के लिए करना उनका प्रमुख दृष्टिकोण बन गया। संक्षेप में, अंग्रेज प्रशासन न भारतीय जनता के प्रति सहानुभूति रखते थे और न भारतवासियों के कल्याण के प्रति सजग रहे थे। इंगलैण्ड में जो कानून या नियम भारत के सम्बन्ध में बनाये जाने लगे, उनके प्रति यह ब्रिटिश नीति बनी कि भारत के हितों का इंगलैण्ड के लिए सदैव बलिदान किया जाना चाहिए। अंग्रेजों की इस नीति के कारण भारत उत्तरोत्तर आर्थिक दृष्टि से निर्धन और सांस्कृतिक दृष्टि से हीन होता चला गया। केशव चन्द्र सेन (1838-84) ने अपने समय के भारत के पतन का चित्रण अग्रलिखित शब्दों में किया है :

 ‘आज हम अपने चारों ओर जो देखते हैं वह है एक गिरा हुआ राष्ट्र- एक ऐसा राष्ट्र जिसकी प्राचीन महानता खण्डहरों में गड़ी हुई पड़ी है। उसका राष्ट्रीय साहित्य और विज्ञान, उसका अध्यात्म ज्ञान और दर्शन, उसका उद्योग और वाणिज्य, उसकी सामाजिक समृद्धि और गार्हस्थिक सादगी और मधुरता ऐसी है जिसकी गिनती लगभग अतीत की वस्तुओं में की जाती है। जब हम आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक दृष्टि से उजड़े हुए, शोकयुक्त और उदासीन दृश्य जो हमारे सामने फैला हुआ है- का निरीक्षण करते हैं तो हम व्यर्थ ही उसमें कालिदास के देश-कविता, विज्ञान और सभ्यता के देश को पहचानने का प्रयत्न करते हैं। ‘डॉ. थ्योडोर ने ठीक ही लिखा है कि ‘प्रधानतः आर्थिक लाभ के लिए ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने ब्रिटिश राज्य की स्थापना की और उसका विस्तार किया है। 

सत्रहवीं शताब्दी में भारत का गौरव अपनी पराकाष्ठा पर था और उसकी मध्युगीन संस्कृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई थी। परन्तु जैसे-जैसे एक के बाद एक शताब्दियाँ बीतीं वैसे-वैसे यूरोपीय सभ्यता का सूर्य तेजी से आकाश के मध्य की ओर बढ़ने लगा और भारतीय गगन में अन्धकार छाने लगा। फलतः जल्दी ही देश पर अन्धेरा छा गया और नैतिक पतन तथा राजनीतिक अराजकता की परछाइयाँ लम्बी होने लगीं।3 यह सही है कि प्रशासन एवं यातायात  तथा शिक्षा के क्षेत्र में भारतवासियों ने इस विदेशी शासन से अनेक तत्त्व ग्रहण किये, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि अंग्रेजों ने अधिकाधिक अर्थोपार्जन करने की नीति का ही अनुशीलन किया। यही कारण था कि जहाँ भारतीयों ने मुसलमानों के शासन को स्वीकार करके उसे भारतीय शासन के इतिहास में शामिल किया वहाँ उन्होंने अंग्रजों को अपना संप्रभु नहीं माना, हृदय की गहराइयों से उनके शासन को स्वीकार नहीं किया और प्रारम्भ से ही उनके प्रति अपना विरोध प्रकट किया। अंग्रेज कभी भी भारतीय न बन सके, सदैव विदेशी बने रहे और समय आने पर सब के सब स्वदेश चले गये।

यह विदेशी शासन भारतीयों को कतई स्वीकार नहीं था। बंगाल के सिराज के काल से लेकर दिल्ली के बहादुरशाह के काल तक भारतीय शक्तियों का विरोध स्वर उठता रहा। सन् 1857 के बाद से विद्रोह और विरोध की भावना और भी जोर पकड़ने लगी। अन्ततोगत्वा अगस्त, 1947 में अंग्रेजों को भारत छोड़कर ब्रिटेन वापस जाना पड़ा। अंग्रेजी के काल के भारतीय इतिहास का उत्थान-पतन ही इस आलेख का विषय-क्षेत्र है।

भारत की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

भारत में विदेशियों के आगमन के समय राजनीति में दो प्रमुख शक्ति थीं : मुगल और मराठा। मुगल पतनोन्मुख हो चले थे और मराठा विकासोन्मुख थे। वास्तविकता यह थी कि औरंगजेब की मृत्यु  (1707) के उपरान्त भारत में केन्द्रीय सत्ता नहीं रही और सारा देश छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त हो गया। अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही चरमराते हुए मुगल साम्राज्य को पतन की ओर अग्रसर होना ही था। साम्राज्य के विभिन्न राज्यों में संघर्ष चलने लगे और वे एक दूसरे को हड़पने के लिए निरन्तर षड्यन्त्र की रचना करने लगे। औरंगजेब की मृत्यु के पहले से ही यूरोप की विभिन्न जातियों का आगमन भारतवर्ष में होने लगा था। ये जातियाँ देश की लड़खड़ाती राजनीति और व्याप्त अराजकता को देख रही थीं।

मुगल साम्राज्य की पतनोन्मुख स्थिति :

शाहजहाँ के मरणोपरान्त लगभग पचास वर्ष तक मुगल साम्राज्य की बागडोर औरंगजेब के हाथों में रही, जो आकार, जनसंख्या और वैभव की दृष्टि से समकालीन विश्व के राज्यों में अतुलनीय था। औरंगजेब अत्यन्त ही कठोर एवं कर्तव्यनिष्ठ प्रशासक था। अपने विशाल प्रशासन के एक-एक विषय की वह देखभाल करता था और हर सैनिक अभियान का स्वयं निर्देशन करता था। उसमें अक्षय स्फूर्ति और प्रबल इच्छा-शक्ति थी। फिर भी, इतनी मेहनत सतर्क देखभाल निष्ठायुक्त पवित्र जीवन1 तथा प्रशासक, कूटनीतिज्ञ और सेनापति के रूप में उसकी असंदिग्ध योग्यता के बावजूद उसका शासन असफल रहा। वह स्वयं भी इस बात को जानता था। अपने द्वितीय पुत्र आजम को लिखे अपने पत्र में उसने स्वीकार किया था : मैं सल्तनत की सच्ची हुकूमत और किसानों की भलाई एकदम नहीं कर सका हूँ। इतनी बेशकीमती जिन्दगी बेकार गई।2
 
औरंगजेब के काल तक शासन बहुत सीमा तक सम्भला रहा, किन्तु उसके मरते ही राजनीति में उलट-फेर होने लगी। 1712 में बंगाल, बिहार और उड़ीसा का नाममात्र का नाजिम अजीमुद्देशान चल बसा। अतः इन तीनों भू-भागों के नाजिम का स्थान रिक्त हो गया। सन् 1713 में फर्रुखशियर गद्दी पर बैठा, जो एक घणास्पद चरित्र का व्यक्ति था। वह अपने वचन का झूठा, अपने हितैषियों के प्रति कृतघ्न, कपट-योग उत्पीड़क, अस्थिर चित्त, कायर और क्रूर था। इस बुरे शासक के काल में मुर्शिदकुली खाँ ने कथित तीनों प्रान्तों के नाजिम का पद प्राप्त कर लिया। बिहार और उड़ीसा में मुर्शीदकुली स्वयं निजामत तथा दीवानी के अधिकारों का प्रयोग करता रहा। बंगाल और कभी-कभी उड़ीसा में सैयद इकराम खान, सुजाउद्दीन खान, सैयद राजखान, लुत्फ उल्ला और सरफरोज खान नियाबत दीवनी के पदों पर नियुक्त होते रहे। इस समय मुगल शासन में इतनी भी शक्ति शेष न रह गई कि वह बंगाल जैसे सुदूर प्रान्त की देख-भाल ठीक रख सकता। प्रारम्भिक समय में निजामत तथा दीवानी पदों का वितरण दिल्ली का बादशाह स्वयं अपनी इच्छानुसार करता था, किन्तु अब मुर्शिदकुली खान के समय में नाजिम का पद मौरुसी (वंशानुगत) ठहराया गया।

इस समय तक केन्द्रीय सत्ता स्पष्ट रूप से लड़खड़ाती दृष्टिगोचर होने लगी और शासन की आर्थिक स्थिति पर दुष्प्रभाव पड़ा। राजस्व घट गया, संचार-साधन लड़खड़ा गये और उद्योग, व्यापार तथा कृषि को स्थानीय स्वरूप मिलने लगा। केन्द्र-विरोधी शक्तियाँ हावी होने लगीं, न्याय और व्यवस्था बिगड़ गई, वैयक्तिक और सार्वजनिक नैतिकता हिल गई। साम्राज्य टुकड़े-टुकड़े हो गये और विदेशी आक्रमणों तथा आन्तरिक शत्रुओं का मुकाबला करने की उसकी शक्ति टूट गई। अब यूरोपीय राष्ट्रों के प्रतिनिधियों ने भारतीय मामलों में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया।

मुगल राजनीति में अब तेजी से उलट-फेर प्रारम्भ हुए। नवाब मुर्शिदकुली खान के मरणोपरान्त उसका दामाद सुजाउद्दीन खान (1725-39) नाजिम के पद आरूढ़ हुआ और अपने पुत्र सरफराज खान को अपना दीवान नियुक्त किया। साथ ही, मिर्जा लुत्फ उल्ला भी मीरहबीब नायब नाजिम के पद पर नियुक्ति किये गये। कुछ समय के उपरान्त सरफराज खान को दीवान के पद के अतिरिक्त नायब नाजिम के पद पर नियुक्त किया गया। किन्तु वास्तव में गालिब अली खान और जसवन्त राव नायब दीवान के साथ कार्य करते रहे। शुजाउद्दीन खान के उपरान्त उसका पुत्र सरफराज (1739-40) ने निजामत की बागडोर सँभाली। इसके समय में दीवानी पद के कर्तव्य एक सभा के हाथ में थे, जिसके विशेष सदस्य हाजी अहमद और जगत सेठ थे तथा बिहार की निजामत पर अलीवर्दी खान नियुक्त किये गये थे। अलीवर्दी खान महावत जंग (1740-51) सरफराज खान के पश्चात् बंगाल की गद्दी पर बैठे। इनके समय में नवाजिश मुहम्मद खान दीवान नियुक्त हुए और ढाका के नायब नाजिम भी बने। बिहार प्रान्त में नवाब जीनउद्दीन खान हैबतजंग नायब नाजिम नियुक्ति हुए और उड़ीसा में शौलत जंग नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला (1756-57) अलीवर्दी खान का नवासा था। उसने मोहनलाल को अपना दीवान बनाया और जसारत खान (1756-81) ढाका का नायब नाजिम रहा। सिराजुद्दौला के काल में बंगाल में प्रसिद्ध प्लासी की लड़ाई हुई जिसके फलस्वरूप देश में पहली बार विदेशी शासन की नींव पड़ी।

संक्षेप में, औरंगजेब की मृत्यु काल से लेकर प्लासी की लड़ाई के पूर्व काल तक बंगाल, बिहार और उड़ीसा की राजनीति मुगल प्रशासन से अप्रभावित रहने लगी। सुकुमार भट्टाचार्य ने लिखा है यह सत्य है कि औरंगजेब की मृत्यु से पूर्व ही षड्यन्त्रकारी शाक्तियों ने सिर उठाना प्रारम्भ कर दिया था। यहाँ तक कि जिस राज्य की जड़े इतनी शक्तिशाली थीं उन्हें धूल-धूसरित कर दिया और अब औरंगजेब के वंश में कोई ऐसा नहीं रहा जो इन षड्यन्त्रों को कुचल सकता। इसका कारण यह था कि मुगलों का विशाल साम्राज्य कई प्रान्तों में विभाजित था जो सूबेदारों के संरक्षण में थे। प्रत्यक्ष है कि ऐसा शासन प्रबन्ध शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार की उपस्थिति में ही चल सकता था। लेकिन मुगलों का केन्द्रीय शासन-प्रबन्ध औरंगजेब की अनुपस्थिति में नितान्त शक्तिहीन और अदृढ़ हो गया था। औरंगजेब के सारे के सारे उत्तराधिकारी जहाँदार शाह, फर्रूखशियर मुहम्मद शाह आदि अयोग्य थे जो गिरते साम्राज्य को संभाल नहीं सकते थे। ऐसी स्थिति में मुगल सूबेदार अपने प्रान्तों के स्वामी बन बैठे। इस कारण साम्राज्य में चारों तरफ अशान्ति, उपद्रव षड्यन्त्र आदि के बाजार गर्म हो गये।

जहाँदारशाह लापरवाह, लम्पट और पागलपन की हद तक नशेबाज था। उसने दुराचारपूर्ण और स्त्रैण दरबारी जीवन का एक दुष्ट नमूना सामने रखा और शासक वर्ग की नैतिकता को कलुषित किया। इस कठपुतली बादशाह के काल में सारी सत्ता वजीर तथा अन्य दरबारियों के हाथों में चली गई। उत्तरदायित्व बँट जाने से प्रशासन में लापरवाही आयी और अराजकता फैल गई। अपने ग्यारह महीने के प्रशासन काल में जहाँदारशाह ने अपने पूर्वजों द्वारा संचित खजाने का अधिकांश लूटा दिया। सोना, चाँदी और बाबर के समय से इकट्ठी की गई अन्य मूल्यवान चीजें उड़ा दी गईं। युवक मुहम्मदशाह को प्रशासन में कोई रुचि नहीं थी। वह निम्न कोटि के लोगों से घिरा रहता था और तुच्छ कामों में अपना समय बिताता था। इसी के शासन काल में दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ था। उत्तर भारत के राज्यों का उल्लेख किया ही जा चुका है, दक्षिण भारत के राज्य भी अशान्त हो उठे।

दक्षिण में निजाम उल-मुल्क आसिफ जान और अवध में बुरहान-उल-मुल्क सआदत अली खाँ ने स्वतन्त्र राजसत्ता का प्रयोग किया। इसी मार्ग का अनुशीलन रूहेलखण्ड के अफगान पठानों ने भी किया। मराठों ने भी महाराष्ट्र, मध्यभारत, मालवा और गुजरात पर अधिकार करके पूना को अपनी राजनीतिक कार्य-कलापों का केन्द्र बना लिया। अगर 1761 में अहमदशाह अब्दाली के हाथों पानीपत के मैदान में मराठों को पराजय न मिली होती तो आज भारतीय इतिहास की एक नई रूपरेखा होती। भारत में काम करने वाली यूरोपीय कम्पनियाँ क्या इस आन्तरिक फूट से लाभ उठाने के लोभ का संवरण कर सकती थीं ?

मराठों का उत्कर्ष

मुगल शासन की शक्तिहीनता के कारण भारत में आने वाली विदेशी जातियों और उनकी कम्पनियों को प्रभाव जमाने का मौका तो मिला ही, भारत की एक अन्य शक्ति मराठा भी अपना विकास करती गई और मुगल प्रशासन की संप्रभुता को चुनौती देकर अपनी प्रधानता कायम कर ली। उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज इतिहासकार लिखता है कि औरंगजेब की मृत्यु के साथ ही मुगल साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। इस समय दक्षिण भारत की यह दशा थी कि प्राचीन राज्य सब छिन्न-भिन्न हो चुके थे और मुगलों का सामना मराठों से था जो प्रतिदिन शक्तिशाली होते जा रहे थे और अन्त में मराठे मुगलों पर छा गये।

मराठों में राजनीतिक जागरण एवं संगठन की पृष्ठभूमि का निर्माण छत्रपति शिवाजी ने किया था। औरंगजेब के शासन-काल में ही उन्होंने तोरण, रामगढ़, चाकन, कल्याणी आदि को जीतकर अपनी शक्ति बढ़ा ली तथा बीजापुर के सुल्तान, यहाँ तक की औरंगजेब से भी संघर्ष करके अपनी अजेय शक्ति का परिचय दिया। उन्होंने स्वतन्त्र मराठा राज्य की स्थापना कर ली जिसे विवश होकर मुगल सम्राट को भी मान्यता देनी पडी। शिवाजी के नेतृत्व में निर्मित मराठा प्रशासन मुगल साम्राज्य की कमजोरी का परिचायक है।

शिवाजी के उत्तराधिकारियों-शम्भाजी, राजाराम, शिवाजी द्वितीय और शाहूजी ने मराठा राज्य का संचालन किया। उनके बाद पेशवाओं की प्रधानता मराठा राज्य में कायम हो गई। बालाजी विश्वनाथ (1713-20), बाजीराव प्रथम (1720-40) और बालाजी बाजीराव (1740-61) नामक पेशवाओं ने मराठा शक्ति को अपने संरक्षण में कायम रखा। यद्यपि एक दिन में मराठे अहमदशाह अब्दाली के हाथों पराजित हुए, तथापि उन्होंने भारत की एक महान शक्ति के रूप में अपना अस्तित्व बनाये रखा। प्लासी की लड़ाई के बाद वे औरंगजेब के एक बड़े विरोधी सिद्ध हुए।

अन्य शक्तियों का उद्भव: उत्तर मुगलकालीन शासकों के शासन काल में मराठों के अतिरिक्त भारत में सिक्खों, राजपूतों, जाटों तथा रुहेलों के रूप में अन्य शक्तियाँ भी उछल-कूद कर रही थीं। सिक्खों ने पंजाब में अपनी शक्ति में वृद्ध कर ली थी। पंजाब में उन्होंने अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली और मुगलों की संप्रभूता की अवहेलना कर दी। इसी प्रकार राजपूतों ने राजपूताना में, जाटों ने दिल्ली के आस-पास और रुहेलों ने रुहेलखण्ड में अपनी-अपनी शक्ति का विस्तार कर लिया। मराठों तथा सिक्खों की तरह उन्होंने भी अपनी स्वतन्त्र सत्ता की स्थापना कर डाली।

सम्पूर्ण देश को विघटित करने वाली इन तमाम शक्तियों पर नियन्त्रण रखना मुगल शासकों के लिए सम्भव नहीं रह गया और देश विघटित होने लगा। देश की ऐसी अनैक्यपूर्ण स्थिति में भारत में विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन हुआ और इन नवागत कम्पनियों को अपना अधिकार-क्षेत्र विस्तृत करने का अवसर मिला।


विदेशी जातियों तथा कम्पनियों का आगमन

भारतवर्ष में विदेशियों का आगमन मुख्यतः दो मार्गों से हुआ : स्थल मार्ग और जल मार्ग (सामुद्रिक) मार्ग से। उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा को लाँघकर स्थल मार्गों के द्वारा तथा विभिन्न सामुद्रिक मार्गों द्वारा भारतवर्ष में प्रवेश किया। स्थल मार्गों से ही मुसलमान भारत आये थे। मुगल शासकों ने अपने काल में विदेशियों के आगमन को रोकने के लिए बड़ी स्थल-सेना तो रखी, किन्तु वे जल-सेना के महत्त्व को नहीं समझ सके और इसलिए उनके काल में अरक्षित समुद्र-मार्गों से उनके यूरोपीय लोग भारत–प्रवेश में सफल हो गये। भारत आकर यूरोप की व्यापारिक जातियों के लोग भारतीय इतिहास को एक नया मोड़ देने लगे।

प्राचीन काल से ही भारत एवं पश्चिम के देशों के बीच अच्छे सम्बन्ध थे और वे एक-दूसरे के साथ व्यापार करते थे। परन्तु सातवीं शताब्दी से अरबों ने हिन्द महासागर तथा लाल महासागर के सामुद्रिक व्यापार पर कब्जा कर लिया। वे अपनी बड़ी नावों में भारतीय सामानों को भरकर पश्चिम से ले जाते थे और उन्हें वेनिस तथा जेनेवा के सौदागरों के हाथ बेचते थे। पन्द्रहवीं सदी के अन्तिम चतुर्थांश में भारत में यूरोप के लोगों का प्रवेश अधिक होने लगा। इसके कुछ विशेष कारण थे।

यूरोप में रेनेसॉ आया था जिसने यूरोपवासियों को कला, साहित्य, विज्ञान, भौगोलिक खोजों आदि के क्षेत्र में प्रगति एवं परिवर्तन लाने का नया दृष्टिकोण दिया था। किन्तु रेनेसॉ का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रभाव भौगोलिक खोज पर पड़ा। भौगोलिक खोज के सिलसिले में पश्चिम की जातियों का भारत के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त करना और यहाँ आना निश्चित-सा हो गया। जब भारतीय शासकों ने स्थल-मार्ग पर अनेक प्रतिबन्ध लगाये और विदेशी व्यापारियों को विभिन्न व्यापारिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, तब इन व्यापारियों ने स्थल मार्ग को छोड़कर जल-मार्ग का पता लगाना प्रारम्भ किया। उनका श्रम निष्फल नहीं गया। उन्होंने सामुद्रिक मार्ग खोज निकाले।

नये सामुद्रिक मार्गों की खोज की सारा श्रेय पुर्तगालियों को प्राप्त है। पुर्तगाल के राजकुमार हेनरी (1393-1460) ने इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया। उसने एक प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना की जहाँ नाविकों को वैज्ञानिक ढंग से प्रशिक्षण दिया जाने लगा और उन्हें जल-परिभ्रमण कला की बारीकियाँ बतलायी जाने लगीं। उसने सामुद्रिक यात्रियों को विभिन्न प्रकार की मदद देकर सामुद्रिक यात्रा के लिए उत्प्रेरणा दी। उसी के सहयोग तथा सहायता के फलस्वरूप अफ्रीकी समुद्र-तटों की खोज करने में पुर्तगाली सफल हुए। हेनरी इस बात में विश्वास करता था कि एक दिन पुर्तगाल के साहसिक यात्री अफ्रीका की परिक्रमा करते-करते निश्चित रूप से भारत जाने का मार्ग खोज निकालने में सफल होंगे।

हेनरी से उत्साहित होकर ही बार्थोलोम्यू डियाज ने 1488 ई. में अफ्रीका महाद्वीप के दक्षिण भाग तथा की यात्रा की और उत्तमाशा अन्तरीप को पार कर गया। इसके पूर्व पुर्तगाल के नाविक 1471 ई. में विषुवत् रेखा को पार कर चुके थे और 1484 ई. में कांगों तक पहुँच गये थे। पुर्तगाल के एक अन्य राजा जॉन द्वितीय ने कोविल्हम तथा पेबिया नामक नाविकों को मिस्र के मार्ग से हिन्द महासागर की खोज के लिए भेजा। इनमें कोविल्हम को अधिक सफलता मिली। वह यात्रा के सिलसिले में भारत में मालाबार तट तक आ धमका तथा वहाँ से अरब पार करते हुए उसने अफ्रीका के पूर्वी तट पर अपने चरण धरे।

इन खोजों से प्रभावित होकर पुर्तगालवासी वास्कोडिगामा नामक एक सामुद्रिक यात्री ने 17 मई 1498 ई. को केप ऑफ गुडहोप होकर भारत जाने का मार्ग ढ़ूँढ़ निकाला। इस प्रसिद्ध यात्री ने 8 जुलाई 1497 ई. को अपनी यात्रा प्रारम्भ की और उत्तमाशा। अन्तरीप तथा मोजाम्बीक पार करते हुए भारत के पश्चिमी तटीय प्रदेश कालीकट आ गया।

“मेरी पुस्तक तथ्यों का ऐतिहासक अभिलेख है मैं पाठकों के सम्मुख हिन्दुओं के सिद्धांत एकदम ठीक रूप में प्रस्तुत करूंगा और उनके संबंध में यूनानियों के वे सिद्धांत पेश करूँगा जो हिन्दू सिद्धान्तों से मिलते-जुलते हैं ताकि उन दोनों के बीच जो संबंध है वह उजागर हो सके….।”

“अपने विषय का प्रतिपादन करने से पहले हमें इस संबंध में समुचित विचार करना होगा कि वह क्या बात है जो भारत संबंधी किसी भी विषय के मूल तक पहुंचने में विशेष रूप से कठिनाई उपस्थित करती है। इन कठिनाइयों का बोध या तो हमारे कार्य को आगे बढ़ाने में सुविधा प्रदान करेगा या यदि हमारे कार्य में कोई त्रुटि रह जाए तो उसका कारण सिद्ध होगा।”

“पहली कठिनाई तो यह है कि वे हमसे हर उस बात में भिन्न हैं जिसमें हममें और अन्यजातियों में समानता है। पहले भाषा को ही लें…..यदि आप इस कठिनाई का समाधान करना चाहते हैं (यानी संस्कृत सीखना चाहते हैं) तो आपके लिए ऐसा करना आसान नहीं होता क्योंकि शब्द-भंडार तथा विभक्तियों दोनों ही दृष्टि से इसका क्षेत्र बहुत विस्तृत है।”

“यही नहीं, भारतीय लेखक बहुत लापरवाह भी हैं और वे सही तथा सुसंबद्ध विवरण प्रस्तुत करने में परिश्रम नहीं करते….।
दूसरी कठिनाई यह है कि वे धर्म में भी हमसे सर्वथा भिन्न हैं। कोई भी वस्तु जो किसी विदेशी की आग या पानी से छू जाए उसे वे अपवित्र मानते हैं…..।”

“तीसरी बात यह कि वे सभी प्रकार के आचार-व्यवहार में…हमारी वेश-भूषा और हमारे रीति-रिवाजों से अलग हैं….।
कुछ और भी कारण हैं…(यथा) उनके जातिगत चरित्र की विशेषताएं….।”

“अतः यह है भारत की वस्तुस्थिति। यही कारण है कि अपने विषय में अपार रुचि होने के बावजूद मुझे उसमें पैठने में बड़ी मुश्किल पेश आई…और यह भी तब जबकि मैंने संस्कृति के ग्रंथ एकत्र करने के लिए परिश्रम या धन खर्च करने में कोई कसर नहीं उठा रखी।”

 

यदि लेखन-शैली की ओर ध्यान न दिया जाए, जो कुछ पुरानी है, तो उपर्युक्त पंक्तियों को भारत पर लिखी किसी विदेशी समाजशास्त्री की हाल ही की किसी पुस्तक की भूमिका के उद्धरण समझा जा सकता है। वास्तव में यह एक ऐसी पुस्तक के आरंभिक पृष्ठों से ली गई पंक्तियां हैं जिसका लेखक आज से एक हजार से कुछ अधिक वर्षों पहले जन्मा था। इनके लेखक के लिए यहां की संस्कृति बिल्कुल नई थी लेकिन उसने उस समझने और अपने यहां के लोगों के लिए सहानुभूति पूर्वक प्रस्तुत करने का ऐसी अवधारणा ईमानदारी के साथ प्रयत्न किया कि उसे ‘‘सबसे पहले वैज्ञानिक और किसी भी युग के एक महानतम भारतविद्’’ के नाम से अभिहित किया गया।1 इस पुस्तक का नाम है ‘किताब फ़ी तहफ़ूक़ मा लिल हिन्द मिन मक़ाला मक़्बूला फ़िल अक़्ल-औ-मरजूला’ जिसे आम तौर पर ‘किताब-उल-हिन्द’ कहा जाता है और उसका लेखक था अबू रेहान मुहम्मद इब्न-ए-अहमद जिसे ज़्यादातर लोग अल-बिरूनी के नाम से जानते हैं। एडवर्ड सी. सखाऊ  ‘किताब-उल-हिन्द’ के संपादक और अनुवादक हैं|

अल बिरूनी का जन्म 973 ई. में ख़्वारिज़्म इलाके में हुआ था जिस पर उस समय तूरान और ईरान के सामानी वंश (874-999) का शासन था। ख़्वारिज़्म, आधुनिक ख़ीव जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य एशिया में तुर्किस्तान का ख़ान राज्य था। यह अब  उज्बेकिस्तान  का एक भाग है।. यद्यपि अल-बिरूनी का जन्म ख़्वारिज्म में हुआ था तथापि उसके माता-पिता ईरानी मूल के थे और उन्हें उस स्थान पर परदेशी माना जाता, इसी कारण से उन्हें फ़ारसी उपनाम बिरूनी (बाहर के) दिया गया।  उसका जन्म नगर में नहीं बल्कि उपमहानगरीय क्षेत्र में हुआ था जिसके कारण उसे अल-बिरूनी की संज्ञा दी गई और आज वह अपने असली नाम के बजाय इसी नाम से जाना जाता है। ‘बिरूनी’ फ़ारसी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है ‘बाहर का’; प्रस्तुत संदर्भ में इसका अभिप्राय ख़्वारिज़्म नामक नगर का सीमांत प्रदेश है।

अल-बिरूनी के जीवन से संबंधित अरबी के कुछ प्राचीन ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि बिरून सिंध के एक शहर का नाम था और चूंकि वह उसी शहर में पैदा हुआ था इसलिए उसका नाम अल-बिरूनी पड़ा। लेकिन यह भ्रांत धारणा है जो शायद इस वजह से पैदा हुई होगी क्योंकि सिंद में निरून नामक एक नगर था और प्रतिलिपिक की गलती से उसे बिरून पढ़ लिया और फिर उसी स्थान को अल-बिरूनी का जन्म स्थान मान लिया गया।1 अल-बिरूनी की भारतीय संस्कृति में प्रखर रुचि को ही शायद उसके भारतीय मूल का परिचायक मान लिया गया।

अल-बिरूनी ईरानी मूल का मुसलमान था। उसके आरंभिक जीवन और लालन-पालन के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है2 लेकिन लगता है उसे अपने बचपन में पढ़ने-लिखने के पर्याप्त अवसर मिले होंगे। स्वाध्याय में उसकी रुचि आजीवन बनी रही। इस संबंध में एक कथा है कि उस समय जबकि वह अपनी अंतिम सांसे ले रहा था और उसका एक मित्र उससे मिलने आया तो अल-बिरूनी ने उससे गणित संबंधी उसके समाधान के बारे में पूछा जिसका हवाला उस मित्र ने पहले कभी उसे दिया होगा। उसका मित्र हैरान हो गया और बोला, ‘ताज्जुब है कि तुम इस अवस्था में भी इन बातों के प्रति चिंतित हो।’’ अल-बिरूनी ने बड़ी मुश्किल से उसकी हैरानी दूर करते हुए कहा, ‘‘क्या मेरे लिए यह वांछनीय न होगा कि मैं निर्मेय का समाधान जाने बिना मर जान के बजाय उसे जान लूं और फिर दम तोड़ूं ? इस पर मित्र ने उसे इच्छित जानकारी दी और वह कमरे से बाहर निकला ही था कि उसने लोगों को अल-बिरूनी की मृत्यु पर विलाप करते सुना।

अल-बिरूनी एक महान भाषाविद् था और उसने अनेक पुस्तकें लिखी थीं। अपनी मातृभाषा ख़्वारिज़्मी के अलावा जो उत्तरी क्षेत्र की एक ईरानी बोली थी और जिस पर तुर्की भाषा का प्रबल प्रभाव था, वह इब्रानी, सीरियाई और संस्कृत का भी ज्ञाता था। यूनानी भाषा का उसे कोई प्रत्यक्ष ज्ञान तो न था लेकिन सारियाई और अरबी अनुवादों के माध्यम से उसने प्लेटो तथा अन्य यूनानी आचार्यों के ग्रंथों का अध्ययन किया था। जहां अब तक अरबी और फ़ारसी का संबंध है इस दोनों भाषाओं का उसे गहन ज्ञान था और उसने अधिकांश पुस्तकें जिनमें ‘किताब-उल-हिन्द’ शामिल है फ़ारसी ही में लिखी थीं क्योंकि वही उस युग की अंतर्राष्ट्रीय भाषा थी। उसी में समस्त सभ्य संसार के वैज्ञानिक ग्रंथ संगृहीत थे और वही विज्ञान तथा साहित्य की विभिन्न शाखाओं में उपलब्ध बहुमूल्य योगदानों का माध्यम थी।

अल-बिरूनी का आरंभिक जीवन एक ऐसे युग में बीता था जिसके दौरान मध्य एशिया में बहुत तेजी के साथ और बड़े प्रचंड राजनीतिक परिवर्तन हुए थे और उनमें से कुछ परिवर्तनों का प्रभाव उसके जीवन और कृतियों पर भी पड़ा था।

इसके पहले ख़्वारिज़्म के स्थानीय राजवंश—मैमूनी—के संरक्षण में ही रहा था जिसने 995 ई. के आसापस सामानियों की पराधीनता का जुआ उतार फेंका था। इसका अल-बिरूनी के जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा और वह ख़्वारिज़्म छोड़कर चला गया और कुछ समय तक जुरजन में (जो कैस्पियन सागर के दक्षिण-पूर्व क्षेत्र में स्थित था) शम्सुल माइली क़ाबूस बिन वास्मगीर के दरबार में रहा जिसे उसने अपना ‘आसार-उल-बाक़िया’ अन-इल-कुरुन-अल-खालिया1 समर्पित किया था जो उसने सबसे प्राचीन तथा अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में माना जाता है। लगता है कि 1017 में जब सुल्तान महमूद ग़ज़नवी ने (999-1030) ख़्वारिज़्म के राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने राज्य में मिला लिया तो अल-बिरूनी ख़्वारिज़्म लौट आया। ख़्वारिज़्म के दरबार के प्रमुख व्यक्तियों में जिन्हें विजेता की राजधानी गजनी ले जाया गया था अल-बिरूनी भी था। उसके बाद वह अधिकतर ग़ज़नी में रहकर जीवकोपार्जन करता रहा और 440 हिं. (1048-1049)2 में 15 वर्ष की आयु में वहीं उसकी मृत्यु हुई।

यह बात स्पष्ट नहीं है कि अल-बिरूनी की सुल्तान महमूद के दरबार में क्या स्थिति थी। शायद वह एक बंधक के रूप में था; लेकिन एक विद्वान के रूप में उसकी उपलब्धियों के कारण और विशेष रूप से एक खगोलशास्त्री तथा ज्योतिषी होने के नाते वह एक सम्मानित बंधक रहा होगा। लेकिन इसके बावजूद सुल्तान महमूद के साथ उसके संबंध बहुत निकट के तथा मैत्रीपूर्ण नहीं रहे। भारत पर उसकी विख्यात ग्रंथ सुल्तान महमूद के राज्यकाल में ही (1030) के आसपास) रचा गया था, किन्तु उसमें सुल्तान का कुछ ही प्रसंगों में उल्लेख मिलता है और वह भी बहुत संक्षेप में। इसके बिलकुल विपरीत महमूद के पुत्र सुल्तान मसूद (1030-1040) के प्रति उसका दृष्टिकोण सौहार्दपूर्ण था जिसे उसने अपनी महानतम कृति ‘अल-क़ानून अल-मसूदी फ़िल हइया-वलनुजूम’ समर्पित की थी और उसकी भूरि भूरि प्रशंसा की थी। अल-बिरूनी के जीवन का अंत भाग जो मसूद के दरबार में बीता था भौतिक समृद्धि और धन-संपत्ति से संपन्न रहा होगा।

ग़ज़नी में उसके प्रवास का यही वह काल है जबसे उसकी भारत में और भारतवासियों के प्रति रुचि प्रारंभ हुई थी। जैसा कि हमें ज्ञात है खगोलविज्ञान, गणित और आयुर्विज्ञान पर भारत में लिखे गए अनेक प्रमुख ग्रन्थों का अरबी में अनुवाद बहुत पहले अब्बासी काल के आरंभ में ही हो चुका था। इसमें से कुछ अल-बिरूनी के पास भी रहे होंगे। यह बात स्वयं ‘किताब-उल-हिन्द’ से स्पष्ट हो जाती है जिसमें अल-बिरूनी ने संस्कृति की उन पांडुलिपियों का जो उसने देखी थीं और उनमें से कुछ नकलनवीसों की गलतियों आदि का उल्लेख किया है। अल-बिरूनी को अपने ग़ज़नी-प्रवास के दौरान भारत विषयक अध्ययन के लिए अधिक अवसर मिले होंगे।

ग़ज़नी शहर पूर्वी क्षेत्र में इस्लाम का प्रमुख राजनीतिक और सांस्कृतिक केंद्र था और उसने पड़ोसी देशों में जिनमें भारत भी शामिल है कुशल व्यक्तियों को आकर्षित किया होगा। उसमें अनेक भारतीय युद्धबंदी, कुशल शिल्प और विद्वान भी थे जो महमूद के भारत पर आक्रमण के बाद लाए गए होंगे। इसके अलावा पंजाब भी जिसमें हिन्दुओं का भारी बहुमत था, ग़ज़नवी साम्राज्य का ही एक अंग बन गया था। ग़ज़नी तथा भारत के कुछ अन्य नगरों में जहां वह गया होगा1 अल-बिरूनी का अनेक भारतीय विद्वानों और पंडितों से संपर्क हुआ होगा और जिनके साथ जैसा कि एस. के. चटर्जी ने संकेत दिया है उसने पश्चिमी पंजाब की बोली के माध्यम से जिसे अल-बिरूनी ने सीख लिया होगा या फ़ारसी के माध्यम से शास्त्रीय संबंध स्थापित किया होगा जिसे कुछ भारतीयों ने सीख लिया होगा।

प्रस्तुत आलेख का उद्देश्य छठी सदी ईस्वी के उत्तर भारत के प्रमुख उत्तर गुप्त राजवंश का एक संक्षिप्त, सरल एवं प्रामाणिक विवरण प्रस्तुत करना है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि इस कालखण्ड में भारत में बहुसंख्यक छोटे-बड़े राज्यों का उदय और अस्त देखने को मिलता है। इनमें कुछ ने तो सम्पूर्ण भारत की तत्कालीन राजनीति को न्यूनाधिक रूप से प्रभावित किया जबकि अधिकांश स्थानीय राजवंश एक सीमित परिक्षेत्र में ही उत्थित हुए और विलीन हो गये।

गुप्तोत्तर कालीन भारतीय इतिहास अनेक नवीन प्रवृत्तियों संक्रमण का काल था। इन नवीन प्रवृत्तियों ने छठी सदी ईस्वी से बारहवीं सदी ईस्वी तक के राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को समान रूप से प्रभावित किया, जिसके परिणामस्वरूप युगान्तकारी परिवर्तन हुए। इस कालखण्ड में ‘आसमुद्र क्षितीशों’ की परम्परा समाप्त हो गयी। गुप्तों एवं वाकाटकों की साम्राज् सत्ता के विघटन के साथ ही भारत के राजनैतिक क्षितिज पर अनेक क्षेत्रीय राज्यों का उदय हुआ और सामन्तवादी व्यवस्था के अन्तर्गत बहुसंख्यक छोटे-छोटे स्थानीय राजवंश अस्तित्त्व में आये। इन्होंने अवसर पाते ही अपनी स्वतंत्र सत्ता की स्थापना कर राज्य विस्तार का कभी असफल तो कभी सफल प्रयत्न किया। इस प्रकार इस काल खण्ड सम्पूर्ण भारत में बहुसंख्यक स्थानीय राजवंशों के उत्थान और पतन का दृश्य देखने को मिलता है। स्वाभावतः सार्वभौम-सत्ता के स्वामी राजवंशों की तुलना में स्थानीय राजवंश सामरिक शक्ति एवं आर्थिक स्थिति, इन दोनों दृष्टियों से दुर्बल थे। दूसरे अपनी राज्यसीमाओं के विस्तार की आकांक्षा से वे परस्पर संघर्षरत भी थे। इन्होंने अपनी आन्तरिक दुर्बलताओं को ढकने के लिए आडम्बरपूर्ण जीवनशैली अपनायी।

विराट् उपाधियों द्वारा स्वयं का अलंकरण करना, अपने नीचे सामन्तों की विविध स्तरीय श्रेणियों का सृजन, अपव्ययपूर्ण निर्माण कार्यों में अभिरूचि और विलासितापूर्ण जीवन, सामन्तवाद के कुछ प्रमुख लक्षण थे, जिन्होंने समवेत रूप से एक ओर तो राजशक्ति को दुर्बल बनाया वहीं दूसरी ओर प्रजा की आर्थिक स्थिति को भी जर्जर कर दिया। उल्लेखनीय है कि सार्वभौम सत्ता के अभाव में व्यापारिक मार्ग असुरक्षित हुए और व्यापारिक गतिविधियां बाधित हुयीं। परिणामतः व्यापार और वाणिज्य के साथ-साथ उद्योगों का विकास भी अवरूद्ध हो गया। इसकाल में मुद्राओं के प्रचलन एवं उपयोग का आभाव स्पष्टतः नागर और वाणिज्य प्रधान अर्थव्यवस्था के ह्रास का सूचक है। अर्थव्यवस्था प्रधानताः कृषि पर अवलम्बित हो गयी। फलतः इस काल खण्ड में कृषकों की स्थिति भी दुर्दशाग्रस्त हो गई। स्पष्टतः राजनीतिक क्षेत्र में उत्पन्न अव्यवस्था ने समकालीन अर्थतंत्र को भी प्रभावित किया।

राजनीतिक एवं आर्थिक दौर्बल्य के युग में उत्तर भारत को विदेशी आक्रमणकारियों के हाथों भी पराजित और अपमानित होना पड़ा। उल्लेखनीय है कि हूणों का भारत पर पहला आक्रमण गुप्त सम्राट स्कन्दगुप्त के शासन काल में हुआ था, जिसमें हूण आक्रमणकारिय़ों को बुरी तरह पराजित होना पड़ा था। किंतु गुप्त सत्ता के अवसान काल में हूण आक्रमणकारी पुनः सक्रिय हो उठे थे। तोरमाण और मिहिरकुल के नेतृत्त्व में हूणों ने गुजरात और मालवा से लेकर गंगा की घाटी तक आक्रमण और विनाश का दृश्य उपस्थित किया। आगे चलकर हूणों ने पंजाब और मध्य भारत में अपने छोटे-छोटे राज्य भी स्थापित किये। हूण आक्रमण की ज्वाला के शमन के बाद आठवीं शताब्दी में सिन्ध, गुजरात और मालवा क्षेत्र पर अरबों के आक्रमण प्रारम्भ  हुए। यद्यपि मलवा के गुर्जर प्रतिहारों ने अरब शक्ति के प्रवाह को रोकने का सफल रूप से प्रयत्न किया तथापि सिन्ध का क्षेत्र अरब आक्रमणकारियों के राजनैतिक प्रभुत्त्व में चला गया।

 इसके कुछ ही समय पश्चात् पश्चिमोत्तर दिशा से तुर्क आक्रमण का संकट उत्पन्न हुआ। तुर्क आक्रमणकारियों का दबाव धीरे-धीरे पश्चिम में गुजरात के समुद्रतटवर्ती क्षेत्रों तक और पूर्व में गंगा की घाटी तक बढ़ता गया। सबसे पहले तुर्कों ने पश्चिमी पंजाब (आधुनिक पाकिस्तान) को अपने आधीन किया और उसके बाद उसके आक्रमणों की जो अनवरत् आंधी उठनी प्रारम्भ हुयी उसे रोकने में परस्पर ईर्ष्यालु और युद्धरत क्षेत्रिय राज्यों के अदूरदर्शी भारतीय शासक सर्वथा असफल सिद्ध हुए और धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता भी खो बैठे। चाहमान, गाहड़वाल, चौलुक्य, चन्देल एवं परमार आदि राजवंशो के पतन से न केवल भारत के राजनैतिक इतिहास का एक युग समाप्त हुआ वरन् सांस्कृतिक परम्पराओं के समक्ष भी एक ऐसी चुनौती उपस्थित हुयी जिसने इतिहास की धारा को एक अकल्पनीय मोड़ दिया। यद्यपि नर्मदा के दक्षिण का भारत इस कालखण्ड में बाहृय आक्रमणों से मुक्त रहा तथापि इस क्षेत्र में भी स्थानीय राजवंश अपने गौरव, अभिमान और क्षेत्र विस्तार की महत्त्वाकांक्षा के कारण परस्पर संघर्षरत और सामन्तवादी प्रवृतियों से पीड़ित रहे।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि केन्द्रापसारी  शक्तियों के अभ्युदय के कारण जहाँ देश की सांस्कृतिक एवं राजनैतिक एकता की भावना दुर्बल हुयी वहीं सांस्कृतिक जीवन की विविधता एवं वैभव में वृद्धि भी हुयी। इस कालखण्ड में मूर्तिकला एवं वास्तुकला की विविध शैलियां विकसित हुयीं, जिन्होंने अनेक उत्कृष्ट वास्तु संरचनाओं एवं कलाकृतियों को जन्म दिया। विविध स्थानीय भाषाओं, बोलियों का विकास प्रारम्भ हुआ तथा स्थानीय शासकों के संरक्षण में अनेक श्रेष्ठ काव्य कृतियों का सृजन हुआ। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजनैतिक एवं सांस्कृतिक परिदृश्य अधिकांशतः नैराश्यपूर्ण होते हुए भी सर्वथा अवदान रहित नहीं था।

उत्तर गुप्त राजवंश

सुप्रसिद्ध गुप्त राजवंश का अवसान 550-51 ईस्वी में हुआ और इसके साथ ही उत्तर भारतीय राजनीति में रिक्तता के साथ-साथ अस्थिरता एवं अराजकता का वातावरण भी उत्पन्न हुआ। गुप्त सम्राटों के अधीन उत्तर भारत के विभिन्न क्षेत्रों में शासन करने वाले अनेक स्थानीय राजवंश इस रिक्तता को भरने के लिए अपनी शक्ति के संवर्धन में लग गये। परिणामतः उनमें प्रतिस्पर्धा उत्पन्न हुयी, जिसने पारस्परिक संघर्षों को जन्म दिया। कतिपय सामन्त राजवंश मगध और उसके पार्श्ववर्ती क्षेत्रों पर अधिकार स्थापित कर साम्राज्यवादी शक्ति बनने का स्वप्न देखने लगे इनमें उत्तर गुप्त, मौखरि एवं थानेश्वर के पुष्यभूति राजवंश का नाम यहाँ विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यद्यपि छठी शताब्दी ईस्वी के उत्तरार्द्ध में उत्तर भारतीय राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाले सभी राजवंशों के सन्दर्भ में प्रचुर सूचनाएं उपलब्ध नहीं हैं तथापि आभिलेखिक  एवं साहित्यिक स्रोतों से उत्तर गुप्त, मौखरी एवं पुष्यभूति राजवंश के सन्दर्भ में अपेक्षाकृत अधिक सूचनाएं उपलब्ध हैं। अतएव इतिहासकारों ने इन राजवंशों का इतिहास उपलब्ध साक्ष्यों के समवेत विवेचन के आधार पर प्रमाणिक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है। गुप्तोत्तरकालीन इतिहास का विवरण प्रस्तुत करते हुए इस आलेख में भी क्रमशः उत्तरगुप्त राजवंश का इतिहास प्रस्तुत कर रहे हैं।

उत्तर गुप्त राजवंश के इतिहास को प्रकाशित करने वाले अभिलेखों में आदित्यसेन का अफसढ़ अभिलेख तथा जीवित गुप्त द्वितीय का देववर्णाक अभिलेख विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त आदित्यसेन के समय के दो अभिलेख शाहपुर और मन्दार नामक स्थानों तथा विष्णुगुप्त के काल का एक अभिलेख मंगराव नामक स्थान से प्राप्त हुआ है। किंतु ऐतिहासिक दृष्टि से ये विशेष सूचना प्रदायी नहीं हैं। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ये सभी लेख बिहार प्रान्त से प्राप्त हुए हैं। उदाहणार्थ अफसढ़ अभिलेख गया जिले में स्थित अफसढ़ नामक स्थान में मिला है, जो इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त से लेकर आदिसेन तक के काल के ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख करता है। इससे हमें आदित्यसेन तक उत्तरगुप्त राजवंशावली का ज्ञान तो होता ही है साथ ही इससे उत्तरगुप्त मौखरी सम्बन्धों पर भी रोचक प्रकाश पड़ता है। देववर्णाक अभिलेख बिहार प्रान्त के शाहाबाद (आरा) जिले के देववर्णाक नामक स्थान से मिला है।

इस अभिलेख को प्रकाश में लाने का श्रेय कनिंघम महोदय को है। उन्होंने 1880 ईस्वी में इसे प्राप्त किया था। इस अभिलेख से उत्तरगुप्त राजवंश के अंतिम तीन शासकों  देव गुप्त, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय  के काल के इतिहास के सम्बन्ध में सूचनाएं मिलती हैं। इस प्रकार अफसढ़ एवं देववर्णाक से प्राप्त अभिलेख एक साथ दृष्टि में रखने पर हमें इस वंश के ग्यारह शासकों का अविच्छिन्न इतिहास ज्ञात हो जाता है। चूँकि कृष्ण गुप्त इस वंश का प्रथम शासक तथा जीवित गुप्त द्वितीय इस वंश का अन्तिम शासक था। अतः सम्प्रति इस राजवंश का सम्पूर्ण इतिहास न्यूनाधिक रूप से ज्ञात है, तथापि इस वंश के इतिहास के सम्बन्ध में अभी भी अनेक ऐसी सूचनाएँ हैं जो विवादस्पद बनी हुई हैं। जिनके सम्बन्ध में उपलब्ध सूचनाओं के आधार पर कोई निर्णायक मत व्यक्त करना दुष्कर है।

उत्पत्ति एवं आदि राज्य

उत्तर गुप्त राजवंश का संस्थापक कृष्ण गुप्त को अफसढ़ अभिलेख में ‘सदवंश’ में उत्पन्न बताया गया है। इससे केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वह किसी उच्चकुल से सम्बद्ध था। इससे अधिक उत्तर गुप्तों की उत्पत्ति के संबंध में हमें कोई सूचना नहीं मिलती। इस वंश के अधिकांश शासकों  के नाम के साथ ‘गुप्त’ शब्द जुड़ा हुआ है। अतः कतिपय विद्वानों के द्वारा यह सम्भावना व्यक्त की गई है कि ये चक्रवर्ती गुप्त राजवंश से सम्बन्धित रहे होंगे। किंतु यह सम्भावना निर्मूल प्रतीत होती है। क्योंकि यदि ये चक्रवर्ती गुप्तों से सम्बद्ध होते तो इनके लेखों में निश्चय ही गर्व पूर्वक इस बात का उल्लेख किया गया होता। तो भी उल्लेखनीय है कि इस वंश के सभी राजाओं के नाम के अन्त में गुप्त शब्द नहीं मिलता।
 
ध्यातव्य है कि इस वंश के सर्वाधिक शक्तिशाली शासक का नाम आदित्यसेन मिलता है। सम्भवतः उत्तर गुप्त राजवंश, सम्राट गुप्तों के आधीन शासन करने वाला एक सामन्त राजवंश था। क्योंकि इस वंश के प्रथम शासक कृष्ण गुप्त को केवल नृप उपाधि प्रदान की गई है तथा इसके उत्तराधिकारी हर्ष गुप्त के नाम के साथ केवल आदर सूचक ‘श्री’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि चक्रवर्ती गुप्तों से पृथक करने के लिए ही इतिहासकारों ने इस वंश को परवर्ती गुप्त वंश अथवा उत्तर गुप्त वंश कह कर सम्बोधित किया है। कुछ इतिहासकारों ने इस नामकरण पर आपत्ति भी की है। सुधाकर चट्टोपाध्याय का सुझाव था कि इस वंश का नामकरण उनके संस्थापक कृष्ण गुप्त के नाम पर करना चाहिए तथा इसे ‘कृष्ण गुप्तवंश’ कहा जाना चाहिए।


गुप्त राजवंश अथवा उत्तर गुप्त राजवंश अब इतिहासकारों के बीच अधिकांशतः स्वीकृत और बहुमान्य हो चुका है। उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र कौन सा था ? यह विषय आज भी विवादास्पद बना हुआ है। इस राजवंश के पश्चात्वर्ती शासकों आदित्यसेन, विष्णु गुप्त एवं जीवित गुप्त द्वितीय के अभिलेख मगध क्षेत्र से ही प्राप्त हुए हैं। जिनसे यह इंगित है कि इन तीन शासकों का शासन मगध क्षेत्र पर व्याप्त था। अतः फ्लीट आदि विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि इस राज्यवंश का  मूल क्षेत्र भी मगध ही रहा होगा।1 इसके विपरीत डी. सी. गांगुली, आर. के. मुकर्जी, सी. बी. वैद्य, हार्नले एवं रायचौधरी आदि अनेक विद्वानों  का यह विचार है कि इस वंश के लोग मूलतः मलवा के निवासी थे जो हर्षोत्तर काल में मगध के शासक बने।2 मालवा को उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र मानने वाले विद्वान का मुख्य तर्क यह है कि हर्षचरित में माधव गुप्त का उल्लेख मालवराज पुत्र के रूप में हुआ है। जबकि अफसढ़ अभिलेख में माधव गुप्त को महासेन गुप्त का पुत्र कहा गया है। दोनों को ही स्रोतों में माधव गुप्त को हर्ष का मित्र कहा गया है।

हर्षचरित के अनुसार वह हर्ष का बाल सखा था जबकि अफसढ़ अभिलेख के अनुसार वह हर्ष देव के निरन्तर साहचर्य का आकांक्षी था। इन दोनों स्रोतों को साथ-साथ देखने से हर्षचरित के मालवराज और आदित्यसेन के पितामह महासेन गुप्त की एकरूपता प्रमाणित होती है। यहां यह भी ध्यातव्य है कि जीवित गुप्त द्वितीय के देववर्णाक अभिलेख के अनुसार मगध पर पहले मौखरी सर्ववर्मा और अवन्तिवर्मा का अधिकार था, जो उत्तर गुप्त वंश के शासक दामोदर गुप्त और महासेन गुप्त के समकालीन थे। इस बात की भी प्रबल सम्भावना है कि मगध का क्षेत्र सर्ववर्मा के पिता ईशानवर्मा  के भी आधीन रहा हो, जो उत्तर गुप्त वंशी शासक कुमार गुप्त का समकालीन था। क्योंकि  ईशानवर्मा के हड़हा अभिलेख में ईशानवर्मा को आन्ध्रों, शूलिकों तथा गौड़ों का विजेता कहा गया है और गौड़ की विजय मगध क्षेत्र पर अधिकार के बिना सम्भव नहीं प्रतीत होती। इन सभी तथ्यों को दृष्टि में रखने पर पूर्वी मालवा के क्षेत्र को ही उत्तर गुप्तों का मूल क्षेत्र मानना युक्ति संगत लगता है।
 

 कृष्ण गुप्त 

असफढ़ अभिलेख के अनुसार उत्तर गुप्त वंश का प्रथम शासक कृष्ण गुप्त था। अभिलेख के अतैथिक होने के कारण कृष्ण गुप्त का शासनकाल सुनिश्चित रूप से निर्धारित नहीं किया जा सकता तथापि इस दिशा में हमें ईशानवर्मा के हड़हा अभिलेख से सहायता मिलती है, जिसकी तिथि 554 ईस्वी है। ईशानवर्मा उत्तर गुप्त वंशी नरेश कुमार गुप्त का शासनकाल स्थूलतः 540 ईस्वी और 560 ईस्वी के बीच निर्धारित किया जा सकता है। चूंकि कुमार गुप्त के पूर्व जीवित गुप्त प्रथम, हर्ष गुप्त और कृष्ण गुप्त इन तीन शासकों ने राज्य किया और यदि प्रत्येक शासक के लिए औसत बीस वर्ष का शासनकाल निर्धारित किया जाय तो कृष्ण गुप्त का शासन काल लगभग 480 ईस्वी से 500 ईस्वी के बीच रखा जा सकता है।

अफसढ़ अभिलेख में कृष्ण गुप्त को ‘नृप’ उपाधि से विभूषित किया गया है।1 इस समय गुप्त साम्राट बुध गुप्त शासन कर रहा था जिसका राजनैतिक प्रभाव मालवा क्षेत्र तक निश्चित रूप से व्याप्त था। बुध गुप्त के शासनकाल में ही हूण नरेश तोरमाण का पश्चिमी भारत पर आक्रमण हुआ। तोरमाण के शासन का प्रथम वर्ष का अभिलेख एरण से प्राप्त हुआ है। इससे यह विदित होता है कि 490 ईस्वी और 510 ईस्वी  के बीच किसी समय तोरमाण का अधिकार मालवा क्षेत्र पर स्थापित हुआ। उसने बुध गुप्त के एरण क्षेत्र पर शासन करने वाले सामन्त मातृविष्णु के अनुज धान्यविष्णु को अपनी ओर से इस क्षेत्र का प्रशासक नियुक्त किया। किंतु मालवा क्षेत्र में हूणों की यह सत्ता निर्विध्न नहीं रही। क्योंकि एरण से ही प्राप्त 510 ईस्वी के भानु गुप्त के अभिलेख से ज्ञात होता है कि भानु गुप्त ने, जो एक महान योद्धा था एरण में एक भीषण युद्ध किया, जिसमें उसका मित्र गोपराज वीरगति को प्राप्त हुआ था और उसकी पत्नी अपने पति के शव के साथ सती हो गई थी।

समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए इतिहासकारों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि भानु गुप्त और गोपराज ने यह युद्ध हूण नरेश तोरमाण के विरूद्ध ही किया होगा। स्पष्टतः मालवा क्षेत्र के राजनीतिक परिदृश्य में तेजी के साथ परिवर्तन हो रहा था जिससे मध्य भारत के परिव्राजक, उच्चकुल तथा एरण क्षेत्र के धान्यविष्णु जैसे सामन्त कुलों की गुप्त सम्राटों के प्रति स्वामिभक्ति शिथिल और संदिग्ध होती जा रही थी। सम्भवतः उन्हीं परिस्थितियों का लाभ उठाते हुए कृष्ण गुप्त ने पूर्वी मालवा में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। यद्यपि अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया है कि उसकी सेना में सहस्रों की संख्या में हाथी थे तथा वह असंख्य युद्धों का विजेता था एवं विद्वानों से सदैव वह घिरा रहता था, किन्तु इसे औपचारिक प्रशंसा मात्र ही समझना चाहिए।

हर्ष गुप्त

कृष्ण गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र हर्ष गुप्त था। इसका शासनकाल लगभग 500 ईस्वी से 520 ईस्वी तक था। अफसढ़ अभिलेख में कहा गया है कि इसने अनेक दुधर्ष युद्धों में विजय प्राप्त किया था। इसका शासन काल भी हूणों के आक्रमण के कारण उथल-पुथल का काल था। यह हूण आक्रान्ता तोरमाण और उसके पुत्र मिहिरकुल दोनों का समकालीन था। इस समय गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य हूणों के साथ संघर्ष में उलझा हुआ था। कुछ विद्वानों का यह मानना है कि नरसिंह गुप्त का शासन मगध क्षेत्र में ही सीमित था, जबकि बंगाल के क्षेत्र में कदाचित वैन्य गुप्त ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था तथा मालवा क्षेत्र में सम्भवतः भानु गुप्त हूणों के विरूद्ध संघर्षरत था।

अफसढ़ अभिलेख में हर्ष गुप्त के लिए स्वतंत्र शासक के लिए प्रयुक्त होने वाली किसी उपाधि का प्रयोग नहीं है। अतः उसकी स्थित एक सामान्त की ही प्रतीत होती है। यह कहना कठिन है कि वह तत्कालीन गुप्त सम्राट नरसिंह गुप्त बालादित्य अथवा भानु गुप्त के अधीन शासन कर रहा था या उसने हूणों की अधिसत्ता स्वीकार कर ली थी। यह भी सम्भावना व्यक्त की गयी है कि वह मालवा के यशोधर्मन का भी समकालीन था। किंतु दोनों के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। इसकी बहन हर्ष गुप्ता का विवाह मौखरी नरेश आदित्यवर्मा के साथ हुआ था। इस प्रकार हर्ष गुप्त के शासनकाल में उत्तर गुप्त एवं मौखरी राजकुलों के पारस्परिक सम्बन्ध मित्रतापूर्ण दिखाई देते हैं। वस्तुतः ये दोनों ही राजकुल विकासोन्मुख थे। अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ये परस्पर सहयोगी बनें और मैत्री सम्बन्ध को सु़दृढ़ करने के लिए वैवाहिक सम्बन्ध का आश्रय लिया।

जीवित गुप्त प्रथम  

हर्ष गुप्त का उत्तराधिकारी उसका पुत्र जीवित गुप्त प्रथम था। इसने लगभग 520 ईस्वी से 540 ईस्वी तक शासन किया। अफसढ़ अभिलेख से उपलब्ध सूचनओं से यह संकेत मिलता है कि यह अपने पिता एवं पितामाह की तुलना में अधिक शक्तिशाली सिद्ध हुआ। इसे अभिलेख में ‘क्षितीशचूड़ामणि’1 उपाधि से विभूषित किया गया है। अफसढ़ अभिलेख में इसके राजनीतिक प्रभावों की चर्चा करते हुए यह कहा गया है कि ‘वह समुद्रतटवर्ती हरित प्रदेश तथा हिमालय के पार्शववर्ती शीत प्रदेश के शत्रुओं के लिए दाहक ज्वर के सदृश था।’1 ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त-साम्राज्य पर हूणों के आक्रमण एवं मालवा शासक यशोवर्धन के दिग्विजय के परिणाम स्वरूप उत्तर भारत में राजनीतिक अव्यवस्था की भयावह स्थिति उतपन्न हो चुकी थी।

गुप्त सम्राटों का प्रताप-सूर्य अस्त हो रहा था और हिमालय के सीमावर्ती क्षेत्रों सहित उत्तरी बंगाल के क्षेत्रों से गुप्त सत्ता का प्रभाव समाप्त हो चला था। असम्भव नहीं है कि जीवित गुप्त प्रथम ने समकालीन गुप्त सम्राट, जो सम्भवतः कुमार गुप्त तृतीय था, के सामन्त के रूप में पूर्वी भारत में विद्रोहों का दमन करने के लिए यह अभियान किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस अभियान में समकालीन मौखरी नरेश ईश्वर वर्मा ने भी उसका सहयोग किया। क्योंकि जौनपुर शिलालेख में यह कहा गया है कि ईश्वर वर्मा ने उत्तर की दिशा में हिमालय तक के क्षेत्रों (प्रालेयाद्रि) पर विजय प्राप्त की थी। इन विजयों के परिणाम स्वरूप जीवित गुप्त के शासनकाल में उत्तर गुप्तों के राजनीतिक प्रभाव में वृद्धि हुई। इसलिए अफसढ़ अभिलेख में यह कहा गया है  कि ‘उसका पराक्रम पवन पुत्र हनुमान द्वारा समुद्र लंघन के समान अमानुषिक था।

कुमार गुप्तः

जीवित गुप्त प्रथम का उत्तराधिकारी उसका पुत्र कुमार गुप्त हुआ। इसका शासनकाल लगभग 540 ईस्वी से से 560 ईस्वी तक माना गया है। इसके शासन के प्रायः मध्यकाल में (550-51ईस्वी) गुप्त सम्राट विष्णु गुप्त की मृत्यु हुई एवं गुप्त राजवंश का पूर्णतः अंत हो गया। गुप्त राजवंश के पतन का लाभ उठाने की दिशा में उत्तर गुप्त और मौखरी दोनों ही राजवंश सक्रिय हो उठे। परिणामतः इन दोनों राजकुलों का पारस्परिक मैत्री सम्बन्ध समाप्त हो गया। अफसढ़ अभिलेख से दोनों कुलों के बीच शत्रुता एवं संघर्ष की स्पष्ट सूचना मिलती है। इस अभिलेख के अनुसार कुमार गुप्त एवं उसके समकालीन मौखरी नरेश ईशानवर्मा के बीच भीषण संघर्ष हुआ। कदाचित इस संघर्ष का उद्देश्य मगध के क्षेत्र पर, जो साम्राज्य सत्ता का प्रतीक था, अधिकार स्थापित करना था।

उत्तर गुप्त नरेश कुमार गुप्त एवं मौखरी नरेश ईशानवर्मा के बीच संघर्ष की सूचना देने वाला एकमात्र स्रोत अफसढ़ अभिलेख है। इस अभिलेख के अनुसार कुमार गुप्त ने ‘राजाओं में चन्द्रमा के समान शक्तिशाली ईशानवर्मा के सेना रूपी क्षीरसागर का, जो लक्ष्मी की सम्प्राप्ति का साधन था, मन्दराचल पर्वत की भाँति मंथन किया। इस श्लोक में निहित अर्थ को लेकर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। रायचौधरी का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त की विजय हुई तथा ईशानवर्मा पराजित  हुआ। क्योंकि मौखरियों द्वारा इस युद्ध में विजय का कोई दावा नहीं किया गया। उल्लेखनीय है कि ईशानवर्मा के 554 ईस्वी के हड़हा अभिलेख में इस युद्ध का कोई वर्णन नहीं है। अतः इस बात की प्रबल सम्भावना है कि यह युद्ध 554 ईस्वी के बाद किसी समय हुआ होगा। अफसढ़ अभिलेख के आगे के श्लोक में यह कहा गया है कि इस युद्ध के बाद कुमार गुप्त ने प्रयाग में अग्निप्रवेश कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली थी।1 निहाररंजन राय और राधाकुमुद मुकर्जी जैसे विद्वानों का मत है कि इस युद्ध में कुमार गुप्त पराजित हुआ था और उसने पराजय जनित ग्लानि के कारण प्रयाग में आत्महत्या की थी।

महिलाओं और पुरुषों ने कार्य की तलाश में प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए व्यापारियों सैनिकों पुरोहितों और तीर्थयात्रियों के रूप में या फिर साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएँ की हैं। वे जो किसी नए स्थान पर आते हैं अथवा बस जाते हैं निश्चित रूप से एक ऐसी दुनिया को समक्ष पाते हैं जो भूदृश्य या भौतिक परिवेश के संदर्भ में और साथ ही लोगों की प्रथाओं भाषाओं आस्था तथा व्यवहार में भिन्न होती है। इनमें से कुछ इन भिन्नताओं के अनुरूप ढल जाते हैं और अन्य जो कुछ हद तक विशिष्ट होते हैं इन्हें ध्यानपूर्वक अपने वृत्तांतों में लिख लेते हैं जिनमें असामान्य तथा उल्लेखनीय बातों को अधिक महत्व दिया जाता है।

दुर्भाग्य से हमारे पास महिलाओं द्वारा छोड़े गए वृत्तांत लगभग न के बराबर हैं हालाँकि हम यह जानते हैं कि वे भी यात्राएँ करती थीं। सुरक्षित मिले वृत्तांत अपनी विषयवस्तु के संदर्भ में अलग-अलग प्रकार के होते हैं। कुछ दरबार की गतिविधियों से संबंधित होते हैं जबकि अन्य धार्मिक विषयों या स्थापत्य के तत्वों और स्मारकों पर केंद्रित होते हैं। उदाहरण के लिए पंद्रहवीं शताब्दी में विजयनगर शहर के सबसे महत्वपूर्ण विवरणों में से एक हेरात से आए एक राजनयिक अब्दुर रज्जाक समरकंदी से प्राप्त होता है। कई बार यात्री सुदूर क्षेत्रों में नहीं जाते हैं। उदाहरण के लिए मुगल साम्राज्य  में प्रशासनिक अधिकारी कभी-कभी साम्राज्य के भीतर ही भ्रमण करते थे और अपनी टिप्पणियाँ दर्ज करते थे। इनमें से कुछ अपने ही देश की लोकप्रिय प्रथाओं तथा जन-वार्ताओं और परंपराओं को समझना चाहते थे।

हम यह देखेंगे कि उपमहाद्वीप में आए यात्रियों द्वारा दिए गए सामाजिक जीवन के विवरणों के अधययन से किस प्रकार हम अपने अतीत के विषय में ज्ञान बढ़ा सकते हैं। इसके लिए हम तीन व्यक्तियों के वृत्तांतों पर ध्यान देंगे: अल-बिरूनी जो ग्यारहवीं शताब्दी में उज्बेकिस्तान आया था इब्नबतूता ;चौदहवीं शताब्दी मोरक्को से तथा फांसीसी यात्री फांस्वा बर्नियर ;सत्रहवीं शताब्दी।

1- अल-बिरूनी तथा किताब-उल-हिन्द

1-1 ख्व़ारिज्म से पंजाब तक

अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज्बेकिस्तान में स्थित ख्व़ारिज्म में सन्‌ 973 में हुआ था। ख्व़ारिज्म शिक्षा का एक महत्वपूर्ण केंद्र था और अल-बिरूनी ने उस समय उपलब्ध सबसे अच्छी शिक्षा प्राप्त की थी। वह कई भाषाओं का ज्ञाता था जिनमें सीरियाई फारसी हिब्रू तथा संस्कृत शामिल हैं। हालाँकि वह यूनानी भाषा का जानकार नहीं था पर फिर भी वह प्लेटो तथा अन्य यूनानी दार्शनिकों के कार्यों से पूरी तरह परिचित था जिन्हें उसने अरबी अनुवादों के माध्यम से पढ़ा था। सन्‌ 1017 ई- में ख्व़ारिज्म पर आक्रमण के पश्चात सुल्तान महमूद यहाँ के कई विद्वानों तथा कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले गया। अल-बिरूनी भी उनमें से एक था। वह बंधक के रूप में ग्ज़ानी आया था पर धीरे-धीरे उसे यह शहर पसंद आने लगा और सत्तर वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक उसने अपना बाकी जीवन यहीं बिताया। ग़जनी में ही अल-बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। यह कोई असामान्य बात नहीं थी। आठवीं शताब्दी से ही संस्कृत में रचित खगोल विज्ञान गणित और चिकित्सा संबंधी कार्यों का अरबी भाषा में अनुवाद होने लगा था। पंजाब के ग़जनवी साम्राज्य का हिस्सा बन जाने के बाद स्थानीय लोगों से हुए संपर्कों ने आपसी विश्वास और समझ का वातावरण बनाने में मदद की। अल-बिरूनी ने ब्राह्मण पुरोहितों तथा विद्वानों के साथ कई वर्ष बिताए और संस्कृत धर्म तथा दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। हालाँकि उसका यात्रा-कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी। उसके लिखने के समय यात्रा वृत्तांत अरबी साहित्य का एक मान्य हिस्सा बन चुके थे। ये वृत्तांत पश्चिम में सहारा रेगिस्तान से लेकर उत्तर में वोल्गा नदी तक फैले क्षेत्रों से संबंधित थे। इसलिए हालाँकि 1500 ई- से पहले भारत में अल-बिरूनी को कुछ ही लोगों ने पढ़ा होगा भारत से बाहर कई अन्य लोग संभवत: ऐसा कर चुके हैं।

1-2 किताब-उल-हिन्द

अरबी में लिखी गई अल-बिरूनी की कृति ‘किताब-उल-हिन्द’ की भाषा सरल और स्पष्ट है। यह एक विस्तृत ग्रंथ है जो धर्म और दर्शनत्योहारों खगोल-विज्ञान कीमिया रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं सामाजिक जीवन भार-तौल तथा मापन विधियों मूर्तिकला कानून मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों के आधार पर अस्सी अधयायों में विभाजित है। सामान्यत: ;हालाँकि हमेशा नहीं अल-बिरूनी ने प्रत्येक अधयाय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना। आज के कुछ विद्वानों का तर्क है कि इस लगभग ज्यामितीय संरचना जो अपनी स्पष्टता तथा पूर्वानुमेयता के लिए उल्लेखनीय है का एक मुख्य कारण अल-बिरूनी का गणित की ओर झुकाव था। अल-बिरूनी जिसने लेखन में भी अरबी भाषा का प्रयोग किया था ने संभवत: अपनी कृतियाँ उपमहाद्वीप के सीमांत क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए लिखी थीं।

वह संस्कृत पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था-इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल-विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियाँ सभी शामिल थीं। पर साथ ही इन ग्रंथों की लेखन-सामग्री शैली के विषय में उसका दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और निश्चित रूप से वह उनमें सुधार करना चाहता था।

2- इब्नबतूता का रिह्‌ला

2-1 एक आरंभिक विश्व-यात्री

इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिह्‌ला कहा जाता है चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है। मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित तथा शिक्षित परिवारों में से एक जो इस्लामी कानून अथवा शरियत पर अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था में हुआ था। अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्नबतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की। अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत इब्नबतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्वपूर्ण स्रोत मानता था। उसे यात्राएँ करने का बहुत शौक था और वह नए-नए देशों और लोगों के विषय में जानने के लिए दूर-दूर के क्षेत्रों तक गया। 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया इराक फारस यमन ओमान तथा पूर्वी आफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था। मध्य एशिया के रास्ते होकर इब्नबतूता सन्‌ 1333 में स्थलमार्ग से सिधं पहुचँा। उसने दिल्ली के सुल्तान महुम्मद बिन तुगलक केे बारे में सुना था और कला और साहित्य के एक दयाशील संरक्षक के रूप में उसकी ख्याति से आकर्षित हो बतूता ने मुल्तान और उच्छ के रास्ते होकर दिल्ली की ओर प्रस्थान किया।

सुल्तान उसकी विद्वता से प्रभावित हुआ आरै उसे दिल्ली का  फाजी या न्यायाधीश नियुक्त किया। वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा पर फिर उसने विश्वास खो दिया और उसे कारागार में केद कर दिया गया। बाद में सुल्तान और उसके बीच की गलतफहमी दूर होने के बाद उसे राजकीय सेवा में पुनर्स्थापित किया गया और 1342 ई- में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया गया। अपनी नयी नियुक्ति के साथ इब्न बतूता मध्य भारत के रास्ते मालाबार तट की ओर बढ़ा। मालाबार से वह मालद्वीप गया जहाँ वह अठारह महीनों तक व्फ़ााजी के पद पर रहा पर अंतत: उसने श्रीलंका जाने का निश्चय किया। बाद में एक बार फिर वह मालाबार तट तथा मालद्वीप गया और चीन जाने के अपने कार्य को दोबारा शुरू करने से पहले वह बंगाल तथा असम भी गया। वह जहाज से सुमात्रा गया और सुमात्रा से एक अन्य जहाज से चीनी बंदरगाह नगर जायतुन ;जो आज क्वानझू के नाम से जाना जाता है गया। उसने व्यापक रूप से चीन में यात्रा की और वह बीजिंग तक गया लेकिन वहाँ लंबे समय तक नहीं ठहरा। 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया। चीन के विषय में उसके वृत्तांत की तुलना मार्कोपोलो जिसने तेरहवीं शताब्दी के अंत में वेनिस से चलकर चीन ;और भारत की भी की यात्रा की थी के वृत्तांत से की जाती है।

इब्न बतूता ने नवीन संस्कृतियों लोगों आस्थाओं मान्यताओं आदि के विषय में अपने अभिमत को सावधानी तथा कुशलतापूर्वक दर्ज किया। हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यह विश्व-यात्री चौदहवीं शताब्दी में यात्राएँ कर रहा था जब आज की तुलना में यात्रा करना अधिक कठिन तथा जोखिम भरा कार्य था। इब्न बतूता के अनुसार उसे मुल्तान से दिल्ली की यात्रा में चालीस और सिंध से दिल्ली की यात्रा में लगभग पचास दिन का समय लगा था। दौलताबाद से दिल्ली की दूरी चालीस जबकि ग्वालियर से दिल्ली की दूरी दस दिन में तय की जा सकती थी। यात्रा करना अधिक असुरक्षित भी था इब्न बतूता ने कई बार डाकुओं के समूहों द्वारा किए गए आक्रमण झेले थे। यहाँ तक कि वह अपने साथियों के साथ कारवाँ में चलना पसंद करता था पर इससे भी राजमार्गों के लुटेरों को रोका नहीं जा सका। मुल्तान से दिल्ली की यात्रा के दौरान उसके कारवाँ पर आक्रमण हुआ और उसके कई साथी यात्रियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा: जो जीवित बचे जिनमें इब्नबतूता भी शामिल था बुरी तरह से घायल हो गए थे।

2-2 जिज्ञासाओं का उपभोग

जैसाकि हमने देखा है कि इब्न बतूता एक हठीला यात्री था जिसने उत्तर पश्चिमी अफ़्रीका  में अपने निवास स्थान मोरक्को वापस जाने से पूर्व कई वर्ष उत्तरी अ़फीका पश्चिम एशिया मध्य एशिया के कुछ भाग हो सकता है वह रूस भी गया हो भारतीय उपमहाद्वीप तथा चीन की यात्रा की थी। जब वह वापस आया तो स्थानीय शासक ने निर्देश दिए कि उसकी कहानियों को दर्ज किया जाए।

3- फांस्वा बर्नियर : एक विशिष्ट चिकित्सक

लगभग 1500 ई- में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृत्तांत लिखे। उनमें से कुछ चुनिंदा लोगों जैसे जेसुइट रॉबर्टो नोबिली ने तो भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया। सबसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों में एक नाम दुआर्ते बरबोसा का है जिसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा। कालान्तर में 1600 ई- के बाद भारत में आने वाले डच अंग्रेज तथा फ़्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी। इनमें एक प्रसिद्ध नाम फ़्रांसीसी जौहरी ज्यौं-बैप्टिस्ट तैवर्नियर का था जिसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से बहुत प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की। इनमें से कई यात्री जैसे इतालवी चिकित्सक मनूकी कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए। फ़्रांस का रहने वाला फ़्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था। कई और लोगों की तरह ही वह मुगल साम्राज्य में अवसरों की तलाश में आया था। वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुगल दरबार से नजदीकी रूप से जुड़ा रहा-पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद ख्ना के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।

3-1 पूर्व और पश्चिम की तुलना

बर्नियर ने देश के कई भागों की यात्रा की और जो देखा उसके विषय में विवरण लिखे। वह सामान्यत: भारत में जो देखता था उसकी तुलना यूरोपीय स्थिति से करता था। उसने अपनी प्रमुख कृति को फ़्रांस के शासक लुई षप्ट को समर्पित किया था और उसके कई अन्य कार्य प्रभावशाली आधिकारियों और मंत्रियों को पत्रों के रूप में लिखे गए थे। लगभग प्रत्येक दृष्टांत में बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया। जैसाकि हम देखेंगे उसका आकलन हमेशा सटीक नहीं था फिर भी जब उसके कार्य प्रकाशित हुए तो बर्नियर के वृत्तांत अत्यधिक प्रसिद्ध हुए। बर्नियर के कार्य फ़्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेजी डच जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तंात फ़्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेजी में पुनर्मुद्रित हुआ था। यह अरबी और फ़ारसी वृत्तांतों जिनका प्रसार हस्तलिपियों के रूप में होता था और जो 1800 से पहले सामान्यत: प्रकाशित नहीं होते थे के पूरी तरह विपरीत था।

4- एक अपरिचित संसार की समझ : अल-बिरूनी तथा संस्कृतवादी परंपरा

4-1 समझने में बाधाएँ और उन पर विजय

जैसा कि हमने देखा है यात्रियों ने उपमहाद्वीप में जो भी देखा,सामान्यत: उसकी तुलना उन्होंने उन प्रथाओं से की जिनसे वे परिचित थे। प्रत्येक यात्री ने जो देखा उसे समझने के लिए एक अलग विधि अपनाई। उदाहरण के लिए अल-बिरूनी अपने लिए निर्धार्रित उद्देश्य में निहित समस्याओं से परिचित था। उसने कई अवरोधो की चर्चा की है जो उसके अनुसार समझ में बाधक थे। इनमें से पहला अवरोध भाषा थी। उसके अनुसार संस्कृत अरबी और फारसी से इतनी भिन्न थी कि विचारों और सिद्धांतों को एक भाषा से दूसरी में अनुवादित करना आसान नहीं था। उसके द्वारा वर्णित दूसरा अवरोध धार्मिक अवस्था और प्रथा में भिन्नता थी। उसके अनुसार तीसरा अवरोध अभिमान था। यहाँ रोचक बात यह है कि इन समस्याओं की जानकारी होने पर भी अल-बिरूनी लगभग पूरी तरह से ब्राह्मणों द्वारा रचित कृतियों पर आश्रित रहा। उसने भारतीय समाज को समझने के लिए अकसर वेदों पुराणों भगवद्गीता पतंजलि की कॄतियों तथा मनुस्मृति आदि से अंश उद्धृत किए।

4-2 अल-बिरूनी का जाति व्यवस्था का विवरण

अल-बिरूनी ने अन्य समुदायों में प्रतिरूपों की खोज के माध्यम से जाति व्यवस्था को समझने और व्याख्या करने का प्रयास किया। उसने लिखा कि प्राचीन फारस में चार सामाजिक वर्गों को मान्यता थी: घुड़सवार और शासक वर्ग भिक्षु आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक खगोल शास्त्री तथा अन्य वैज्ञानिक और अंत में कृषक तथा शिल्पकार। दूसरे शब्दों में वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे। इसके साथ ही उसने यह दर्शाया कि इस्लाम में सभी लोगों को समान माना जाता था और उनमें भिन्नताएँ केवल धार्मिकता के पालन में थीं। जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद अल-बिरूनी ने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया। उसने लिखा कि हर वह वस्तु जो अपवित्र हो जाती है अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को पुन: प्राप्त करने का प्रयास करती है और सफल होती है। सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता।

उसके अनुसार जाति व्यवस्था में सन्निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध थी। जैसाकि हमने देखा है जाति व्यवस्था के विषय में अल-बिरूनी का विवरण उसके नियामक संस्कृत ग्रंथों के अधययन से पूरी तरह से गहनता से प्रभावित था। इन ग्रंथों में ब्राह्मणों के दृष्टिकोण से जाति व्यवस्था को संचालित करने वाले नियमों का प्रतिपादन किया गया था। लेकिन वास्तविक जीवन में यह व्यवस्था इतनी भी कड़ी नहीं थी। उदाहरण के लिए अंत्यज ;शाब्दिक रूप में व्यवस्था से परेद्ध नामक श्रेणियों से सामान्यतया यह अपेक्षा की जाती थी कि वे किसानों और जमींदारों के लिए सस्ता श्रम उपलब्ध करें। दूसरे शब्दों में हालाँकि ये अक्सर सामाजिक प्रताड़ना का शिकार होते थे फिर भी इन्हें आर्र्थिक तंत्र में शामिल किया जाता था।

5- इब्न बतूता तथा अनजाने को जानने की उत्कंठा

जब चौदहवीं शताब्दी में इब्न बतूता दिल्ली आया था उस समय तक पूरा उपमहाद्वीप एक ऐसे वैश्विक संचार तंत्र का हिस्सा बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर-पश्चिमी अफ़्रीका तथा यूरोप तक फैला हुआ था। जैसाकि हमने देखा है इब्नबतूता ने स्वयं इन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर यात्राएँ की पवित्र पूजास्थलों को देखा विद्वान लोगों तथा शासकों के साथ समय बिताया कई बार काजी के पद पर रहा तथा शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया जहाँ अरबी फारसी तुर्की तथा अन्य भाषाएँ बोलने वाले लोग विचारों सूचनाओं तथा उपाख्यानों का आदान-प्रदान करते थे। इनमें अपनी धर्मनिष्ठता के लिए प्रसिद्ध लोगों की ऐसे राजाओं जो निर्दयी तथा दयावान दोनों हो सकते थे की तथा समान्य पुरुषों और महिलाओं तथा उनके जीवन की कहानियाँ सम्मिलित थीं जो भी कुछ अपरिचित था उसे विशेष रूप से रेखांकित किया जाता था। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता था कि श्रोता अथवा पाठक सुदूर पर सुगम्य देशों के वृत्तांतों से पूरी तरह प्रभावित हो सकें।

5-1 नारियल तथा पान

इब्नबतूता की चित्रण की विजयों के कुछ बेहतरीन उदाहरण उन तरीकों में मिलते हैं जिनसे वह नारियल और पान दो ऐसी वानस्पतिक उपज जिनसे उसके पाठक पूरी तरह से अपरिचित थे का वर्णन करता है।

5-2 इब्नबतूता और भारतीय शहर

इब्नबतूता ने उपमहाद्वीप के शहरों को उन लोगों के लिए व्यापक अवसरों से भरपूर पाया जिनके पास आवश्यक इच्छा साधन तथा कौशल था। ये शहर घनी आबादी वाले तथा समृद्ध थे सिवाय कभी-कभी युद्धों तथा अभियानों से होने वाले विधवंस के। इब्नबतूता के वृत्तांत से ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश शहरों में भीड़-भाड़ वाली सड़कें तथा चमक-दमक वाले और रंगीन बाजार थे जो विविध प्रकार की वस्तुओं से भरे रहते थे। इब्नबतूता दिल्ली को एक बड़ा शहर विशाल आबादी वाला तथा भारत में सबसे बड़ा बताता है। दौलताबाद ;महाराष्ट्र में भी कम नहीं था और आकार में दिल्ली को चुनौती देता था। बाजार मात्र आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे बल्कि ये सामाजिक तथा आथिक गतिविधयों के केंद्र भी थे। अधिकांश बाजारों में एक मस्जिद तथा एक मं दिर होता था और उनमें से कम से कम कुछ में तो नर्तकों संगीतकारों तथा गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान भी चिन्हित थे।

हालाँकि इब्नबतूता की शहरों की समृद्धि का वर्णन करने में अधिक रुचि नहीं थी इतिहासकारों ने उसके वृत्तांत का प्रयोग यह तर्क देने में किया है कि शहर अपनी सम्पत्ति का एक बड़ा भाग गाँवों से अधिशेष के अधिग्रहण से प्राप्त करते थे। इब्नबतूता ने पाया कि भारतीय कृषि के इतना अधिक उत्पादनकारी होने का कारण मिट्टी का उपजाऊ…पन था जो किसानों के लिए वर्ष में दो फसलें उगाना संभव करता था। उसने यह भी ध्यान दिया कि उपमहाद्धीप व्यापार तथा वाणिज्य के अंतर एशियाई तंत्रों से भली-भाँति जुड़ा हुआ था। भारतीय माल की मध्य तथा दक्षिण-पूर्व एशिया दोनों में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों तथा व्यापारियों को भारी मुनाफ़ा होता था। भारतीय कपड़ों विशेषरूप से सूती कपड़ा महीन मलमल रेशम जरी तथा साटन की अत्यधिक माँग थी। इब्न बतूता हमें बताता है कि महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक मँहगी थीं कि उन्हें अमीर वर्ग के तथा बहुत धनाढ्‌य लोग ही पहन सकते थे।

5-3- संचार की एक अनूठी प्रणाली

व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य विशेष उपाय करता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सराय तथा विश्राम गृह स्थापित किए गए थे। इब्न बतूता डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित हुआ। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लंबी दूरी तक सूचना भेजना और उधार प्रेषित करना संभव हुआ बल्कि अल्प सूचना पर माल भेजना भी। डाक प्रणाली इतनी कुशल थी कि जहाँ ंसंध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लगते थे वहीं गुप्तचरों की खबरें सुलतान तक इस डाक व्यवस्था के माध्यम से मात्र पाँच दिनों में पहुँच जाती थीं।

6- बर्नियर तथा अविकसित पूर्व

जहाँ इब्न बतूता ने हर उस चीज का वर्णन करने का निश्चय किया जिसने उसे अपने अनूठेपन के कारण प्रभावित और उत्सुक किया वहीं बर्नियर  एक भिन्न बुद्धिजीवी परंपरा से संबंधित था। उसने भारत में जो भी देखा वह उसकी सामान्य रूप से यूरोप और विशेष रूप से फ़्रांस में व्याप्त स्थितियों से तुलना तथा भिन्नता को उजागर करने के प्रति अधिक चिंतित था विशेष रूप से वे स्थितियाँ जिन्हें उसने अवसादकारी पाया। उसका विचार नीति-निर्माताओं तथा बुद्धिजीवी वर्ग को प्रभावित करने का था ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे ऐसे निर्णय ले सकें जिन्हें वह ‘‘सही’’ मानता था। बर्नियर  के ग्रंथ टै्रवल्स इन द मुगल एम्पायर अपने गहन प्रेक्षण आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि तथा गहन ¯चतन के लिए उल्लेखनीय है। उसके वृत्तांत में की गई

चर्चाओं में मुगलो के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में स्थापित करने का प्रयास किया गया है। वह निरंतर मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से करता रहा सामान्यतया यूरोप की श्रेष्ठता को रेखांकित करते हुए। उसका भारत का चित्रण द्वि-विपरीतता के नमूने पर आधारित है जहाँ भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में दिखाया गया है या फिर यूरोप का ‘‘विपरीत’’ जैसा कि कुछ इतिहासकार परिभाषित करते हैं। उसने जो भिन्नताएँ महसूस कीं उन्हें भी पदानुक्रम के अनुसार क्रमबद्ध किया जिससे भारत पश्चिमी दुनिया को निम्न कोटि का प्रतीत हो।

6-1 भूमि स्वामित्व का प्रश्न

बर्नियर  के अनुसार भारत और यूरोप के बीच मूल भिन्नताओं में से एक भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव था। उसका निजी स्वामित्व के गुणों में दृढ़ विश्वास था और उसने भूमि पर राजकीय स्वामित्व को राज्य तथा उसके निवासियों दोनों के लिए हानिकारक माना। उसे यह लगा कि मुगल साम्राज्य में सम्राट सारी भूमि का स्वामी था जो इसे अपने अमीरों के बीच बाँटता था और इसके अर्थव्यवस्था और समाज के लिए अनर्थकारी परिणाम होते थे। इस प्रकार का अवबोधन बर्नियर  तक ही सीमित नहीं था बल्कि सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी के अधिकांश यात्रियों के वृत्तांतों में मिलता है। राजकीय भूस्वामित्व के कारण बर्नियर  तर्क देता है भूधारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने और उसमें बढ़ोत्तरी के लिए दूरगामी निवेश के प्रति उदासीन थे।

इस प्रकार निजी भूस्वामित्व के अभाव ने ‘‘बेहतर’’ भूधारकों के वर्ग के उदय ;जैसा कि पश्चिमी यूरोप में को रोका जो भूमि के रखरखाव व बेहतरी के प्रति सजग रहते। इसी के चलते कृषि का समान रूप से विनाश किसानों का असीम उत्पीड़न तथा समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन की स्थिति उत्पन्न हुई है सिवाय शासक वर्ग के। इसी के विस्तार के रूप में बर्नियर  भारतीय समाज को दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना वर्णित करता है जो एक बहुत अमीर तथा शक्तिशाली शासक वर्ग जो अल्पसंख्यक होते हैं के द्वारा अधिन बनाया

जाता है। गरीबों में सबसे गरीब तथा अमीरों में सबसे अमीर व्यक्ति के बीच नाममात्र को भी कोई सामाजिक समूह या वर्ग नहीं था। बर्नियर  बहुत विश्वास से कहता है भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है। तो बर्नियर  ने मुगल साम्राज्य को इस रूप में देखा इसका राजा भिखारियों और क्रुर लोगों का राजा था इसके शहर और नगर विनष्ट तथा खराब हवा से दूषित थे और इसके खेत झाड़ीदार तथा घातक दलदल से भरे हुए थे और इसका मात्र एक ही कारण था राजकीय भूस्वामित्व। आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नहीं करता कि राज्य ही भूमि का एकमात्र स्वामी था। उदाहरण के लिए सोलहवीं शताब्दी में अकबर के काल का सरकारी इतिहासकार अबुल  फजल भूम राजस्व को ‘राजत्व का पारिश्रमिक’ बताता है जो राजा द्वारा अपनी प्रजा को सुरक्षा प्रदान करने के बदले की गई माँग प्रतीत होती है न कि अपने स्वामित्व वाली भूमि पर लगान। ऐसा संभव है कि यूरोपीय यात्री ऐसी माँगों को लगान मानते थे क्योंकि भूमि राजस्व की माँग अकसर बहुत अधिक होती थी। लेकिन असल में यह न तो लगान था न ही भूमिकर बल्कि उपज पर लगने वाला कर था।

बर्नियर  के विवरणों ने अठारहवीं शताब्दी से पश्चिमी विचारकों को प्रभावित किया। उदाहरण के लिए फांसीसी दार्शनिक मॉन्टेस्क्यू ने उसके वृत्तांत का प्रयोग प्राच्य निरंकुशवाद के सिद्धांत को विकसित करने में किया जिसके अनुसार एशिया ;प्राच्य अथवा पूर्व में शासक अपनी प्रजा के ई…पर निर्बाध प्रभुत्व का उपभोग करते थे जिसे दासता और गरीबी की स्थितियों में रखा जाता था। इस तर्क का आधार यह था कि सारी भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था तथा निजी सम्पत्ति अस्तित्व में नहीं थी। इस दृष्टिकोण के अनुसार राजा और उसके अमीर वर्ग को छोड़ प्रत्येक व्यक्ति मुश्किल से गुजर-बसर कर पाता था। उन्नीसवीं शताब्दी में कार्ल मार्क्स ने इस विचार को एशियाई उत्पादन शैली के सिद्धांत के रूप में और आगे बढ़ाया।

उसने यह तर्क दिया कि भारत ;तथा अन्य एशियाई देशों में उपनिवेशवाद से पहले अधििशेष का अधििग्रहण राज्य द्वारा होता था। इससे एक ऐसे समाज का उद्भव हुआ जो बड़ी संख्या में स्वायत्त तथा ;आंतरिक रूप सेद्ध समतावादी ग्रामीण समुदायों से बना था। इन ग्रामीण समुदायों पर राजकीय दरबार का नियंत्रण होता था और जब तक अधिशेष की आपूर्ति निर्विघ्न रूप से जारी रहती थी इनकी स्वायत्तता का सम्मान किया जाता था। यह एक निष्क्रय प्रणाली मानी जाती थी। परंतु  ग्रामीण समाज का यह चित्रण सच्चाई से बहुत दूर था। बल्कि सोलहवीं और सत्रहवीं शताब्दी में ग्रामीण समाज में चारित्रिक रूप से बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक विभेद था। एक ओर बड़े जमींदार थे जो भूमि पर उच्चाधिकारों का उपभोग करते थे और दूसरी ओर अस्पृश्य भूमिविहीन श्रमिक ;बलाहार। इन दोनों के बीच में बड़ा किसान था जो किराए के श्रम का प्रयोग करता था और माल उत्पादन में संलग्न रहता था साथ ही अपेक्षाकॄत छोटे किसान भी थे जो मुश्किल से ही निर्वहन लायक उत्पादन कर पाते थे।

6-3 एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई

हालाँकि मुगल राज्य को निरंकुश रूप देने की तन्मयता स्पष्ट है लेकिन उसके विवरण कभी-कभी एक अधिक जटिल सामाजिक सच्चाई की ओर इशारा करते हैं। उदाहरण के लिए वह कहता है कि शिल्पकारों के पास अपने उत्पादों को बेहतर बनाने का कोई प्रोत्साहन नहीं था क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा कर लिया जाता था। इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था। साथ ही वह यह भी मानता है कि पूरे विश्व से बड़ी मात्रा में बहुमूल्य धातुएँ भारत में आती थीं क्योंकि उत्पादों का सोने और चाँदी के बदले निर्यात होता था। वह एक समृद्ध व्यापारिक समुदाय जो लंबी दूरी के विनिमय से संलग्न था के अस्तित्व को भी रेखांकित करता है। सत्रहवीं शताब्दी में जनसंख्या का लगभग पंद्रह प्रतिशत भाग नगरों में रहता था। यह औसतन उसी समय पश्चिमी यूरोप की नगरीय जनसंख्या के अनुपात से अधिक था। इतने पर भी बर्नियर मुगलकालीन शहरों को शिविर नगर कहता है जिससे उसका आशय उन नगरों से था जो अपने अस्तित्व और बने रहने के लिए राजकीय शिविर पर निर्भर थे। उसका विश्वास था कि ये राजकीय दरबार के आगमन के साथ अस्तित्व में आते थे और इसके कहीं और चले जाने के बाद तेजी से पतनोन्मुख हो जाते थे। उसने यह भी सुझाया कि इनकी सामाजिक और आर्थिक नीव व्यवहार्य नहीं होती थी और ये राजकीय प्रश्रय पर आश्रित रहते थे।

भूस्वामित्व के प्रश्न की तरह ही बर्नियर एक अतिसरलीकृत चित्रण प्रस्तुत कर रहा था। वास्तव में सभी प्रकार के नगर अस्तित्व में थे: उत्पादन केंद्र व्यापारिक नगर बंदरगाह नगर धार्मिक केंद्र तीर्थ स्थान आदि। इनका अस्तित्व समृद्ध व्यापारिक समुदायों तथा व्यवसायिक वर्गों के अस्तित्व का सूचक है। व्यापारी अक्सर मजबूत सामुदायिक अथवा बंधुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को महाजन कहा जाता था और उनके मुखिया को सेठ। अहमदाबाद जैसे शहरी केंद्रों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे नगर सेठ कहा जाता था। अन्य शहरी समूहों में व्यावसायिक वर्ग जैसे चिकित्सक ;हकीम अथवा वैद्य अधयापक ;पंडित या मुल्ला अधिवक्ता ;वकील चित्रकार वास्तुविद संगीतकार सुलेखक आदि सम्मिलित थे। जहाँ कई राजकीय प्रश्रय पर आश्रित थे कई अन्य संरक्षकों या भीड़भाड़  वाले बाजार में आम लोगों की सेवा द्वारा जीवनयापन करते थे।

7- महिलाएँ : दासियाँ सती तथा श्रमिक

जिन यात्रियों ने अपने लिखित वृत्तांत छोड़े वे सामान्यतया पुरुष थे जिन्हें उपमहाद्वीप में महिलाओं की स्थिति का विषय रुचिकर और कभी-कभी जिज्ञासापूर्ण लगता था। कभी-कभी वे सामाजिक पक्षपात को सामान्य परिस्थिति मान लेते थे। उदाहरण के लिए बाजारों में दास किसी भी अन्य वस्तु की तरह खुले आम बेचे जाते थे और नियमित रूप से भेंटस्वरूप दिए जाते थे। जब इब्नबतूता सिंध पहुँचा तो उसने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग्ल़क के लिए भेंटस्वरूप घोड़े ऊँट तथा दास खरीदे। जब वह मुल्तान पहुँचा तो उसने गवर्नर को किशमिश के बादाम के साथ एक दास और घोड़ा भेंट के रूप में दिए। इब्नबतूता बताता है कि मुहम्मद बिन तुग्ल़ाक नसीरुद्दीन नामक धर्मोपदेशक के प्रवचन से इतना प्रसन्न हुआ कि उसे एक लाख टके ;मुद्रा तथा दो सौ दास दे दिए।

इब्नबतूता के विवरण से प्रतीत होता है कि दासों में काफी विभेद था। सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ संगीत और गायन में निपुण थीं और इब्नबतूता सुल्तान की बहन की शादी के अवसर पर उनके प्रदर्शन से खूब आनंदित हुआ। सुल्तान अपने अमीरों पर नजर रखने के लिए दासियों को भी नियुक्त करता था। दासों को सामान्यत: घरेलू श्रम के लिए ही इस्तेमाल किया जाता था और इब्नबतूता ने इनकी सेवाओं को पालकी या डोले में पुरुषों और महिलाओं को ले जाने में विशेष रूप से अपरिहार्य पाया। दासों की कीमत विशेष रूप से उन दासियों की जिनकी आवश्यकता घरेलू श्रम के लिए थी बहुत कम होती थी और अधिकांश परिवार जो उन्हें रख पाने में समर्थ थे कम से कम एक या दो को तो रखते ही थे।

सभी समकालीन यूरोपीय यात्रियों तथा लेखकों के लिए महिलाओं से किया जाने वाला बर्ताव अकसर पश्चिमी तथा पूर्वी समाजों के बीच भिन्नता का एक महत्वपूर्ण संकेतक माना जाता था। इसलिए यह आश्चर्यजनक बात नहीं है कि बर्नियर ने सती प्रथा को विस्तृत विवरण के लिए चुना। उसने लिखा कि हालाँकि कुछ महिलाएँ प्रसन्नता से मृत्यु को गले लगा लेती थीं अन्य को मरने के लिए बाध्य किया जाता था। लेकिन महिलाओं का जीवन सती प्रथा के अलावा कई और चीजों के चारों ओर घूमता था। उनका श्रम कृषि तथा कृषि के अलावा होने वाले उत्पादन दोनों में महत्वपूर्ण था। व्यापारिक परिवारों से आने वाली महिलाएँ व्यापारिक गतिविधियों में हिस्सा लेती थीं यहाँ तक कि कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के सामने भी ले जाती थीं। अत: यह असंभाव्य लगता है कि महिलाओं को उनके घरों के खास स्थानों तक परिसीमित कर रखा जाता था।

लगभग 600 ई-पू- से 600 ईसवी तक के मध्य आर्थिक और राजनीतिक जीवन में अनेक परिवर्तन हुए। इनमें से कुछ परिवर्तनों ने समकालीन समाज पर अपना प्रभाव छोड़ा। उदाहरणत: वन क्षेत्रों में कृषि का विस्तार हुआ जिससे वहा रहने वाले लोगों की जीवनशैली में परिवर्तन हुआ शिल्प विशेषज्ञों के एक विशिष्ट सामाजिक समूह का उदय हुआ तथा संपत्ति के असमान वितरण ने सामाजिक विषमताओं को अधिक प्रखर बनाया। इतिहासकार इन सब प्रक्रियाओं को समझने के लिए प्राय: साहित्यिक परंपराओं का उपयोग करते हैं। कुछ ग्रंथ सामाजिक व्यवहार के मानदंड तय करते थे। अन्य ग्रंथ समाज का चित्रण करते थे और कभी-कभी समाज में मौजूद विभिन्न रिवाजों पर अपनी टिप्पणी भी प्रस्तुत करते थे। अभिलेखों से हमें समाज के कुछ ऐतिहासिक अभिनायकों की झलक मिलती है। हम देखेंगे कि प्रत्येक ग्रंथ ;और अभिलेख किसी समुदाय विशेष के दृष्टिकोण से लिखा जाता था। अत: यह याद रखना जरूरी हो जाता है कि ये ग्रंथ किसने लिखे, क्या लिखा गया और किनके लिए इनकी रचना हुई। इस बात पर भी ध्यान देना जरूरी है कि इन ग्रंथों की रचना में किस भाषा का प्रयोग हुआ तथा इनका प्रचार-प्रसार किस तरह हुआ। यदि हम इन ग्रंथों का प्रयोग सावधानी से करें तो समाज में प्रचलित आचार-व्यवहार और रिवाजों का इतिहास लिखा जा सकता है।

1 महाभारत का समालोचनात्मक सस्कंरण

1919 में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी-एस- सुकथांकर के नेतृत्व में एक अत्यंत महत्वाकांक्षी परियोजना की शुरुआत हुई। अनेक विद्वानों ने मिलकर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने का जिम्मा उठाया। इससे जुड़े क्या-क्या कार्य थे? आरंभ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को एकत्रित किया गया। परियोजना पर काम करने वाले विद्वानों ने सभी पांडुलिपियों में पाए जाने वाले श्लोकों की तुलना करने का एक तरीका ढूढ़ निकाला। अंतत: उन्होंने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रंथ खंडों में किया। इस परियोजना को पूरा करने में सैंतालीस वर्ष लगे। इस पूरी प्रक्रिया में दो बातें विशेष रूप से उभर कर आइ : पहली, संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी। यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि समूचे उपमहाद्वीप में उत्तिर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक सभी पांडुलिपियों में यह समानता देखने में आई। दूसरी बात जो स्पष्ट हुई, वह यह थी कि कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभर कर सामने आए।

इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पादटिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया। 13000 पृष्ठों में से आधे से भी अधिक इन प्रभेदों का ब्योरा देते हैं। एक तरह से देखा जाए तो ये प्रभेद उन गूढ़ प्रक्रियाओं के द्योतक हैं जिन्होंने प्रभावशाली परंपराओं और लचीले स्थानीय विचार और आचरण के बीच संवाद कायम करके सामाजिक इतिहासों को रूप दिया था। यह संवाद द्वंद्व और मतैक्य दोनों को ही चित्रित करते हैं। इन सभी प्रक्रियाओं के बारे में हमारी समझ मुख्यत: उन ग्रंथों पर आधारित है जो संस्कृत में ब्राह्मणों द्वारा उन्हीं के लिए लिखे गए। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में इतिहासकारों ने पहली बार सामाजिक इतिहास के मुद्दों का अनुशीलन करते समय इन ग्रंथों को सतही तौर पर समझा। उनका विश्वास था कि इन ग्रंथों में जो कुछ भी लिखा गया है वास्तव में उसी तरह से उसे व्यवहार में लाया जाता होगा। कालांतर में विद्वानों ने पालि, प्राकृत और तमिल ग्रंथों के माध्यम से अन्य परंपराओं का अध्ययन किया। इन अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि आदर्शमूलक संस्कृत ग्रंथ आमतौर से आधकारिक माने जाते थे, किन्तु इन आदशो को प्रश्नवाचक दृष्टि से भी देखा जाता था और यदा-कदा इनकी अवहेलना भी की जाती थी। जब हम इतिहासकारों द्वारा सामाजिक इतिहासों के पुनर्निर्माण की व्याख्या करते हैं तब हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा।

2 अनेक नियम और व्यवहार की विभिन्नता

21 परिवारों के बारे में जानकारी

हम बहुधा पारिवारिक जीवन को सहज ही स्वीकार कर लेते हैं। किन्तु आपने देखा होगा कि सभी परिवार एक जैसे नहीं होते : पारिवारिक जनों की गिनती, एक दूसरे से उनका रिश्ता और उनके क्रियाकलापों में भी भिन्नता होती है। कई बार एक ही परिवार के लोग भोजन और अन्य संसाधनों का आपस में मिल-बाटकर इस्तेमाल करते हैं, एक साथ रहते और काम करते हैं और अनुष्ठानों को साथ ही संपादित करते हैं। परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम संबंधी कहते हैं। तकनीकी भाषा का इस्तेमाल करें तो हम संबंधयों को जाति समूह कह सकते हैं। पारिवारिक रिश्ते ‘नैसर्र्गिक’ और रक्त संब, माने जाते हैं किन्तु इन संबंधों की परिभाषा अलग-अलग तरीके से की जाती है।

कुछ समाजों में भाई-बहन ;चचेरे, मौसेरे आदि से खून का रिश्ता माना जाता है किन्तु अन्य समाज ऐसा नहीं मानते। आरंभिक समाजों के संदर्भ में इतिहासकारों को विशिष्ट परिवारों के बारे में जानकारी आसानी से मिल जाती है किन्तु सामान्य लोगों के पारिवारिक संबंधों को पुनर्निर्र्मित करना मुश्किल हो जाता है। इतिहासकार परिवार और बंधुता संबंधी विचारों का भी विश्लेषण करते हैं। इनका अध्ययन इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे लोगों की सोच का पता चलता है। संभवत: इन विचारों ने लोगों के क्रियाकलापों को प्रभावित किया होगा। इसी तरह व्यवहार ने विचारों पर भी असर डाला होगा।

22 पितृवंशिक व्यवस्था के आदर्श


क्या हम उन िबदुओं को निर्दिष्ट कर सकते हैं जब बंधुता के रिश्तों में परिवर्तन आया? एक स्तर पर महाभारत इसी की कहानी है। यह बांधवों के दो दलों कौरव और पांडव के बीच भूमि और सत्ता को लेकर हुए संघर्ष का चित्रण करती है। दोनों ही दल कुरु वंश से संबंधत थे जिनका एक जनपद  पर शासन था। यह संघर्ष एक युद्ध में परिणत हुआ जिसमें पांडव विजयी हुए। इनके उपरांत पितृवंशिक उत्तराधिकार को उद्घोषित किया गया। हालाकि पितृवंशिकता महाकाव्य की रचना से पहले भी मौजूद थी, महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने इस आदर्श को और सुदृढ़ किया। पितृवंशिकता में पुत्र पिता की मृत्यु के बाद उनके संसाधनों पर ;राजाओं के संदर्भ में सिहासन पर भी अधिकार जमा सकते थे। अधिकतर राजवंश ;लगभग छठी शताब्दी ई-पू- से पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। हालाकि इस प्रथा में विभिन्नता थी : कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव सिहासन पर अपना अधिकार जमाते थे। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रिया जैसे प्रभावती गुप्त  सत्ता का उपभोग करती थीं। पितृवंशिकता के प्रति झुकाव शासक परिवारों के लिए कोई अनूठी बात नहीं थी। ऋग्वेद जैसे कर्मकांडीय ग्रंथ के मंत्रों से भी यह बात स्पष्ट होती है। यह संभव है कि धनी वर्ग के पुरुष और ब्राह्मण भी ऐसा ही दृष्टिकोण रखते थे।

23 विवाह के नियम

जहा पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहा इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था। पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊंची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित’ समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके। इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात्‌ विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया। नए नगरों के उद्भव से सामाजिक जीवन अधिक जटिल हुआ। यहा पर निकट और दूर से आकर लोग मिलते थे और वस्तुओं की खरीद-फ़रोख्त के साथ ही इस नगरीय परिवेश में विचारों का भी आदान-प्रदान होता था। संभवत: इस वजह से आरंभिक विश्वासों और व्यवहारों पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए। इस चुनौती के जवाब में ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताए तैयार कीं।

ब्राह्मणों को इन आचार संहिताओं का विशेष पालन करना होता था किन्तु बाकी समाज को भी इसका अनुसरण करना पड़ता था। लगभग 500 ई-पू- से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई-पू- से 200 ईसवी के बीच हुआ। हालाकि इन ग्रंथों के ब्राह्मण लेखकों का यह मानना था कि उनका दृष्टिकोण सार्वभौमिक है और उनके बनाए नियमों का सबके द्वारा पालन होना चाहिए, किन्तु वास्तविक सामाजिक संबंध कहीं अधिक जटिल थे। इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है कि उपमहाद्वीप में फैली क्षेत्रीय विभिन्नता और संचार की बाधाओं की वजह से भी ब्राह्मणों का प्रभाव सार्वभौमिक कदापि नहीं था। दिलचस्प बात यह है कि धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं। इनमें से पहले चार ‘उत्तम’ माने जाते थे और बाकियों को निदित माना गया। संभव है कि ये विवाह पद्धतिया उन लोगों में प्रचलित थीं जो ब्राह्मणीय नियमों को अस्वीकार करते थे।

24 स्त्री का गोत्र


एक ब्राह्मणीय पद्धति जो लगभग 1000 ई-पू- के बाद से प्रचलन में आई, वह लोगों ;खासतौर से ब्राह्मणों को गोत्रों में वर्गीकृत करने की थी। प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था। उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे। गोत्रों के दो नियम महत्वपूर्ण थे : विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे। क्या इन नियमों का सामान्यत: अनुसरण होता था, इस बात को जानने के लिए हमें स्त्री और पुरुष नामों का विश्लेषण करना पड़ेगा जो कभी-कभी गोत्रों के नाम से उ,द्धृत होते थे। हमें कुछ नाम सातवाहनों जैसे प्रबल शासकों के वंश से मिलते हैं। इन राजाओं का पश्चिमी भारत और दक्कन के कुछ भागों पर शासन था ;लगभग दूसरी शताब्दी ई-पू से दूसरी शताब्दी ईसवी तक। सातवाहनों के कई अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनके आधार पर इतिहासकारों ने पारिवारिक और वैवाहिक रिश्तों का खाका तैयार किया है। कुछ सातवाहन राजा बहुपत्नी प्रथा ;अर्थात्‌ एक से अधिक पत्नी को मानने वाले थे। सातवाहन राजाओं से विवाह करने वाली रानियों के नामों का विश्लेषण इस तथ्य की ओर इंगित करता है कि उनके नाम गौतम तथा वसिष्ठ गोत्रों से उद्भूत थे जो उनके पिता के गोत्र थे। इससे प्रतीत होता है कि विवाह के बाद भी अपने पति कुल के गोत्र को ग्रहण करने की अपेक्षा, जैसा ब्राह्मणीय व्यवस्था में अपेक्षित था, उन्होंने पिता का गोत्र नाम ही कायम रखा।

यह भी पता चलता है कि कुछ रानिया एक ही गोत्र से थीं। यह तथ्य बहिर्र्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध था। वस्तुत: यह उदाहरण एक वैकल्पिक प्रथा अंतर्विवाह पद्धति अर्थात्‌ बंधुओं में विवाह संबंध को दर्शाता है जिसका प्रचलन दक्षिण भारत के कई समुदायों में अभी भी है। बांधवों ;ममेर, चचेरे इत्यादि भाई-बहन के साथ जोड़े गए विवाह संबंधों की वजह से एक सुगठित समुदाय उभर पाता था। संभवत: उपमहाद्वीप के और भागों में अन्य विविधताए भी मौजूद थीं किन्तु उनके विशिष्ट ब्योरों को पुननिर्मित करना संभव नहीं हो पाया है।

25 क्या माताए महत्वपूर्ण थीं?


हमने पढ़ा कि सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम ;माता के नाम से उद्भूत से चित्रित किया जाता था। इससे यह प्रतीत होता है कि माताए महत्वपूर्ण थीं किन्तु किसी भी निष्कर्ष पर पहुचने से पहले हमें बहुत सावधानी बरतनी होगी। सातवाहन राजाओं के संदर्भ में हमें यह ज्ञात है कि सिहासन का उत्तराधिकार पितृवंशिक होता था।

3 सामाजिक विषमताए


वर्ण व्यवस्था के दायरे में और उससे परे संभवत: आप ‘जाति’ शब्द से परिचित होंगे जो एक सोपानात्मक सामाजिक वर्गीकरण को दर्शाता है। धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख किया गया था। ब्राह्मणों का यह मानना था कि यह व्यवस्था जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है। शूद्रों और ‘अस्पृश्यों’ को सबसे निचले स्तर पर रखा जाता था। इस व्यवस्था में दर्जा संभवत: जन्म के अनुसार निधार्रित माना जाता था।

31 ‘उचित’ जीविका


धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वगो के लिए आदर्श ‘जीविका’ से जुड़े कई नियम मिलते हैं। ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना था। क्षत्रियों का कर्म यद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना था। अंतिम तीन कार्य वैश्यों के लिए भी थे साथ ही उनसे कृषि, गौ-पालन और व्यापार का कर्म भी अपेक्षित था। शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी तीनों ‘उच्च’ वर्णों की सेवा करना। इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतिया अपनाइ। एक, जैसा कि हमने अभी पढ़ा, यह बताया गया कि वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था है। दूसरा, वे शासकों को यह उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करें। तीसरे, उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है। किन्तु ऐसा करना आसान बात नहीं थी। अत: इन मानदंडों को बहुधा महाभारत जैसे अनेक ग्रंथों में वणित कहानियों के द्वारा बल प्रदान किया जाता था।

32 अक्षत्रिय राजा

  

शास्त्रों के अनुसार केवल क्षत्रिय राजा हो सकते थे। किन्तु अनेक महत्वपूर्ण राजवंशों की उत्पत्ति अन्य वर्णों से भी हुई थी। मौर्य वंश जिसने एक विशाल साम्राज्य पर शासन किया, के उद्भव पर गर्मजोशी से बहस होती रही है। बाद के बौद्ध ग्रंथों में यह इंगित किया गया है कि वे क्षत्रिय थे किन्तु ब्राह्मणीय शास्त्र उन्हें ‘निम्न’ कुल का मानते हैं। शुंग और कण्व जो मौयो के उत्तराधिकारी थे, ब्राह्मण थे। वस्तुत: राजनीतिक सत्ता का उपभोग हर वह व्यक्ति कर सकता था जो समर्थन और संसाधन जुटा सके। राजत्व क्षत्रिय कुल में जन्म लेने पर शायद ही निर्भर करता था। अन्य शासकों को, जैसे शक जो मध्य एशिया से भारत आए, ब्राह्मण उन्हें मलेच्छ, बर्बर अथवा अन्यदेशीय मानते थे। किन्तु संस्कृत के संभवत: आरंभिक अभिलेखों में से एक में प्रसिद्ध शक राजा रुद्रदामन ;लगभग दूसरी शताब्दी ईसवीद द्वारा सुदर्शन सरोवर के जीर्णोद्धार का वर्णन मिलता है।

 इससे यह ज्ञात होता है कि शक्तिशाली मलेच्छ संस्कृतीय परिपाटी से अवगत थे। एक और दिलचस्प बात यह है कि सातवाहन कुल के सबसे प्रसिद्ध शासक गोतमी-पुत्त सिरी-सातकनि ने स्वयं को अनूठा ब्राह्मण और साथ ही क्षत्रियों के दर्प का हनन करने वाला बताया था। उसने यह भी दावा किया कि चार वर्णों के बीच विवाह संबंध होने पर उसने रोक लगाई। किन्तु फ़िर भी रुद्रदामन के परिवार से उसने विवाह संबंध स्थापित किए। जैसा आप इस उदाहरण में देख सकते हैं, जाति प्रथा के भीतर आत्मसात होना बहुधा एक जटिल सामाजिक प्रक्रिया थी। सातवाहन स्वयं को ब्राह्मण वर्ण का बताते थे जबकि ब्राह्मणीय शास्त्र के अनुसार राजा को क्षत्रिय होना चाहिए। वे चतुर्वर्णी व्यवस्था की मर्यादा बनाए रखने का दावा करते थे किन्तु साथ ही उन लोगों से वैवाहिक संबंध भी स्थापित करते थे जो इस वर्ण व्यवस्था से ही बाहर थे और जैसा हमने देखा वह अंतर्र्विवाह पद्धति का पालन करते थे न कि बहिर्र्विवाह प्रणाली का जो ब्राह्मणीय ग्रंथों में प्रस्तावित है।

33 जाति और सामाजिक गतिशीलता

ये जटिलताए समाज के वर्गीकरण के लिए शास्त्रों में प्रयुक्त एक और शब्द जाति से भी स्पष्ट होती हैं। ब्राह्मणीय सिद्धांत में वर्ण की तरह जाति भी जन्म पर आधारित थी। किन्तु वर्ण जहा मात्र चार थे वहीं जातियों की कोई निश्चित संख्या नहीं थी। वस्तुत: जहा कहीं भी ब्राह्मणीय व्यवस्था का नए समुदायों से आमना-सामना हुआ – उदाहरणत: जंगल में रहने वाले निषाद या कि व्यावसायिक वर्ग जैसे सुवर्णकार, जिन्हें चार वर्णों वाली व्यवस्था में समाहित करना संभव नहीं था, उनका जाति में वर्गीकरण कर दिया गया। वे जातिया जो एक ही जीविका अथवा व्यवसाय से जुड़ी थीं उन्हें कभी-कभी श्रेणियों में भी संगठित किया जाता था। हालाकि इन समुदायों के इतिहास का लेखा-जोखा हमें कम ही प्राप्त होता है, किन्तु कुछ अपवाद हैं जैसे कि मंदसौर ;मध्य प्रदेश से मिला अभिलेख ;लगभग पाचवीं शताब्दी ईसवी। इसमें रेशम के बुनकरों की एक श्रेणी का वर्णन मिलता है जो मूलत: लाट ;गुजरात प्रदेश के निवासी थे और वहा से मंदसौर चले गए थे, जिसे उस समय दशपुर के नाम से जाना जाता था। यह कठिन यात्रा उन्होंने अपने बच्चों और बांधवो के साथ संपन्न की। उन्होंने वहा के राजा की महानता के बारे में सुना था अत: वे उसके राज्य में बसना चाहते थे। यह अभिलेख जटिल सामाजिक प्रक्रियाओं की झलक देता है तथा श्रेणियों के स्वरूप के विषय में अंतर्दृष्टि प्रदान करता है। हालाकि श्रेणी की सदस्यता शिल्प में विशेषज्ञता पर निर्भर थी। कुछ सदस्य अन्य जीविका भी अपना लेते थे। इस अभिलेख से यह भी ज्ञात होता है कि सदस्य एक व्यवसाय के अतिरिक्त और चीजों में भी सहभागी होते थे। सामूहिक रूप से उन्होंने शिल्पकर्म से अर्जित धन को सूर्य देवता के सम्मान में मंदिर बनवाने पर खर्च किया।

34 चार वर्णों के परे : एकीकरण

उपमहाद्वीप में पाई जाने वाली विविधताओं की वजह से यहा हमेशा से ऐसे समुदाय रहे हैं जिन पर ब्राह्मणीय विचारों का कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। संस्कृत साहित्य में जब ऐसे समुदायों का उल्लेख आता है तो उन्हें कई बार विचित्र, असभ्य और शुवत चित्रित किया जाता है। ऐसे कुछ उदाहरण वन प्रांतर में बसने वाले लोगों के हैं जिनके लिए शिकार और कंद-मूल संग्रह करना जीवन-निर्वाह का महत्वपूर्ण साधन था। निषाद वर्ग जिससे एकलव्य जुड़ा माना जाता था, इसी का उदाहरण है। यायावर पशुपालकों के समुदाय को भी शंका की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि उन्हें आसानी से बसे हुए कृषि कर्मियों के साचे के अनुरूप नहीं ढाला जा सकता था। यदा-कदा उन लोगों को जो असंस्कृत भाषी थे, उन्हें मलेच्छ कहकर हेय दृष्टि से देखा जाता था। किन्तु इन लोगों के बीच विचारों और मतों का आदान-प्रदान होता था। उनके संबंधों के स्वरूप के बारे में हमें महाभारत की कथाओं से ज्ञात होता है।

35 चार वर्णों के परे : अधीनता और संघर्ष


ब्राह्मण कुछ लोगों को वर्ण व्यवस्था वाली सामाजिक प्रणाली के बाहर मानते थे। साथ ही उन्होंने समाज के कुछ वगो को ‘अस्पृश्य’ घोषित कर सामाजिक वैषम्य को और अधिक प्रखर बनाया। ब्राह्मणों का यह मानना था कि कुछ कर्म, खासतौर से वे जो अनुष्ठानों के संपादन से जुड़े थे, पुनीत और ‘पवित्र’ थे, अत: अपने को पवित्र मानने वाले लोग अस्पृश्यों उपमहाद्वीप के सबसे समृद्ध ग्रंथों में से एक महाभारत का विश्लेषण करते हुए हम अपना ध्यान एक ऐसे विशाल महाकाव्य पर केंद्रित कर रहे हैं जो अपने वर्तमान रूप में एक लाख श्लोकों से अधिक है और विभिन्न सामाजिक श्रेणियों व परिस्थितियों का लेखा-जोखा है। इस ग्रंथ की रचना एक हजार वर्ष तक होती रही ;लगभग 500 ई-पू- से। इसमें निहित कुछ कथाए तो इस काल से पहले भी प्रचलित थीं। महाभारत की मुख्य कथा दो परिवारों के बीच हुए यद्ध का चित्रण है। इस ग्रंथ के कुछ भाग विभिन्न सामाजिक समुदायों के आचार-व्यवहार के मानदंड तय करते हैं।

यदा-कदा ;किन्तु हमेशा नहीं इस ग्रंथ के मुख्य पात्र इन सामाजिक मानदंडों का अनुसरण करते हुए दिखाई पड़ते हैं। मानदंडों का अनुसरण व उनकी अवहेलना क्या इंगित करती है?  भोजन नहीं स्वीकार करते थे। पवित्रता के इस पहलू के ठीक विपरीत कुछ कार्य ऐसे थे जिन्हें खासतौर से ‘दूषित’ माना जाता था। शवों की अंत्येष्टि और मृत पशुओं को छूने वालों को चांडाल कहा जाता था। उन्हें वर्ण व्यवस्था वाले समाज में सबसे निम्न कोटि में रखा जाता था। वे लोग जो स्वयं को सामाजिक क्रम में सबसे ऊ…पर मानते थे, इन चांडालों का स्पर्श, यहा तक कि उन्हें देखना भी, अपवित्रकारी मानते थे।
मनुस्मृति में चाडालों के ‘कर्तव्यों’ की सूची मिलती है। उन्हें गाव के बाहर रहना होता था। वे फेके हुए बर्तनों का इस्तेमाल करते थे, मरे हुए लोगों के वस्त्र तथा लोहे के आभूषण पहनते थे। रात्रि में वे गांव और नगरों में चल-फ़िर नहीं सकते थे। संबंधियों से विहीन मृतकों की उन्हें अंत्येष्टि करनी पड़ती थी तथा वधक के रूप में भी कार्य करना होता था। चीन से आए बौद्ध भिक्षु फाह-शिएन ;लगभग पाचवीं शताब्दी ईसवी, का कहना है कि अस्पृश्यों को सड़क पर चलते हुए करताल बजाकर अपने होने की सूचना देनी पड़ती थी जिससे अन्य जन उन्हें देखने के दोष से बच जाए। एक और चीनी तीर्थयात्री श्वैन-त्सांग ;लगभग सातवीं शताब्दी ईसवी कहता है कि वधक और सफ़ाई करने वालों को नगर से बाहर रहना पड़ता था। अब्राह्मणीय ग्रंथों में चित्रित चांडालों के जीवन का विश्लेषण करके इतिहासकारों ने यह जानने का प्रयास किया है कि क्या चांडालों ने शास्त्रों में निधार्रित अपने हीन जीवन को स्वीकार कर लिया था? यदा-कदा इन ग्रंथों के चित्रण और ब्राह्मणीय ग्रंथ में हुए चित्रण में समानता है परंतु कभी-कभी हमें एक भिन्न सामाजिक वास्तविकता का भी संकेत मिलता है।

4 जन्म के परे : संसाधन और प्रतिष्ठा

यदि आप आर्थिक संबंधों पर विचार करें तो देखेंगे कि दास, भूमिहीन खेतिहर मजदूर, शिकारी, मछुआरे, पशुपालक, किसान,ग्राममुखिया, शिल्पकार, वणिक और राजा सभी का उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में सामाजिक अभिनायक के रूप में उद्भव हुआ। उनके सामाजिक स्थान इस बात पर निर्भर करते थे कि आर्थिक संसाधनों पर उनका कितना नियंत्रण है। अब हम विशेष संदभो में इस बात का परीक्षण करेंगे कि संसाधनों पर नियंत्रण के क्या सामाजिक आशय थे।

41 संपत्ति पर स्त्री और पुरुष के भिन्न अधिकार

अब हम महाभारत के एक महत्वपूर्ण प्रकरण पर विचार करेंगे। कौरव और पांडव के बीच लंबे समय से चली आ रही प्रतिस्पर्धा के फलस्वरूप दुर्योधन ने युधष्ठिर को द्यूत क्रीड़ा के लिए आमंत्रित किया। युधष्ठिर अपने प्रतिद्वंद्वी द्वारा धोखा दिए जाने के कारण इस द्यूत में स्वर्ण, हस्ति, रथ, दास, सेना, कोष, राज्य तथा अपनी प्रजा की संपत्ति, अनुजों और फ़िर स्वयं को भी दाव पर लगा कर गवा बैठे। इसके उपरांत उन्होंने पांडवों की सहपत्नी द्रौपदी को भी दाव पर लगाया और उसे भी हार गए। संपत्ति के स्वामित्व के मुद्दे जो इन कहानियों में वर्णित हैं, धर्मसूत्र और धर्मशास्त्रों में भी उठाए गए हैं।

मनुस्मृति के अनुसार पैतृक जायदाद का माता-पिता की मृत्यु के बाद सभी पुत्रों में समान रूप से बंटवारा किया जाना चाहिए किन्तु ज्येष्ठ पुत्र विशेष भाग का अधिकारी था। स्त्रिया इस पैतृक संसाधन में हिस्सेदारी की माग नहीं कर सकती थीं। किन्तु विवाह के समय मिले उपहारों पर स्त्रियों का स्वामित्व माना जाता था और इसे स्त्रीधन ;अर्थात्‌ स्त्री का धनद्ध की संज्ञा दी जाती थी। इस संपत्ति को उनकी संतान विरासत के रूप में प्राप्त कर सकती थी और इस पर उनके पति का कोई अधिकार नहीं होता था। किन्तु मनुस्मृति स्त्रियों को पति की आज्ञा के विरुद्ध पारिवारिक संपत्ति अथवा स्वयं अपने बहुमूल्य धन के गुप्त संचय के विरुद्ध भी चेतावनी देती है। आपने एक धनाढ्‌य वाकाटक महिषी प्रभावती गुप्त के बारे में पढ़ा ही है। किन्तु अधिकतर  अभिलेखीय व साहित्यिक साक्ष्य इस बात की ओर इशारा करते हैं कि यद्यपि उच्च वर्ग की महिलाए संसाधनों पर अपनी पैठ रखती थीं, सामान्यत: भूमि, पशु और धन पर पुरुषों का ही नियंत्रण था। दूसरे शब्दों में, स्त्री और पुरुष के बीच सामाजिक हैसियत की भिन्नता संसाधनों पर उनके नियंत्रण की भिन्नता की वजह से अधिक प्रखर हुई।

42 वर्ण और संपत्ति के अधिकार

ब्राह्मणीय ग्रंथों के अनुसार संपत्ति पर अधिकार का एक और आधार ;लैंगिक आधार के अतिरिक्तद्ध वर्ण था। जैसा हम जानते है कि शूद्रों के लिए एकमात्र ‘जीविका’ ऐसी सेवा थी जिसमें हमेशा उनकी इच्छा शामिल नहीं होती थी। हालाकि तीन उच्च वर्णों के पुरुषों के लिए विभिन्न जीविकाओं की संभावना रहती थी। यदि इन सब विधानों को वास्तव में कार्यान्वित किया जाता तो ब्राह्मण और क्षत्रिय सबसे धनी व्यक्ति होते। यह तथ्य कुछ हद तक सामाजिक वास्तविकता से मेल खाता था। साहित्यिक परंपरा में पुरोहितों और राजाओं का वर्णन मिलता है जिसमें राजा अधिकतर धनी चित्रित होते हैं पुरोहित भी सामान्यत: धनी दर्शाए जाते हैं। हालाकि यदा-कदा निर्धन ब्राह्मण का भी चित्रण मिलता है। एक और स्तर पर, जहा समाज के ब्राह्मणीय दृष्टिकोण को धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र में संहिताबद्ध किया जा रहा था अन्य परंपराओं ने वर्ण व्यवस्था की आलोचना प्रस्तुत की। इनमे से सर्वविदित आलोचनाए प्रारंभिक बौद्ध धर्म में ;लगभग छठी शताब्दी ई-पू- से,  विकसित हुई। बौद्धों ने इस बात को अंगीकार किया कि समाज में विषमता मौजूद थी किन्तु यह भेद न तो नैसर्गिक थे और न ही स्थायी बौद्धों ने जन्म के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा को अस्वीकार किया।

43 एक वैकल्पिक सामाजिक रूपरेखा : संपत्ति में भागीदारी

अभी तक हम उन परिस्थितियों का परीक्षण करते रहे हैं जहा लोग अपनी संपत्ति के आधार पर सामाजिक प्रतिष्ठा का दावा करते थे, या पिफर उन्हें वह स्थिति प्रदान की जाती थी। किन्तु समाज में अन्य संभावनाए भी थीं। वह स्थिति जहा दानशील आदमी का सम्मान किया जाता था तथा कृपण व्यक्ति अथवा वह जो स्वयं अपने लिए संपत्ति संग्रह करता था, घृणा का पात्र होता था। प्राचीन तमिलकम्‌ एक ऐसा ही क्षेत्र था जहा उपरोक्त आदशो को संजोया जाता था।

जैसा हम जानते है इस क्षेत्र में 2000 वर्ष पहले अनेक सरदारिया थीं। यह सरदार अपनी प्रशंसा गाने वाले चारण और कवियों के आश्रयदाता होते थे। तमिल भाषा के संगम साहित्यिक संग्रह में सामाजिक और आर्थिक संबंधों का अच्छा चित्रण है जो इस ओर इंगित करता है कि हालाकि धनी और निर्धन के बीच विषमताए थीं, जिन लोगों का संसाधनों पर नियंत्रण था उनसे यह अपेक्षा की जाती थी कि वे मिल-बाट कर उसका उपयोग करेंगे।

5 सामाजिक विषमताओं की व्याख्या : एक सामाजिक अनुबंध

बौद्धों ने समाज में फैली विषमताओं के संदर्भ में एक अलग अवधारणा प्रस्तुत की। साथ ही समाज में फैले अंतर्विरोधों को नियमित करने के लिए जिन संस्थानों की आवश्यकता थी, उस पर भी अपना दृष्टिकोण सामने रखा। सुत्तपिटक नामक ग्रंथ में एक मिथक वर्णित है जो यह बताता है कि प्रारंभ में मानव पूर्णतया विकसित नहीं थे। वनस्पति जगत भी अविकसित था। सभी जीव शांति के एक निर्बाध लोक में रहते थे और प्रकृति से उतना ही ग्रहण करते थे जितनी एक समय के भोजन की आवश्यकता होती है। किन्तु यह व्यवस्था क्रमश: पतनशील हुई।

मनुष्य अधिकाधक लालची, प्रतिहिंसक और कपटी हो गए। इस स्थिति में उन्होंने विचार किया कि: क्या हम एक ऐसे मनुष्य का चयन करें जो उचित बात पर क्रोधित हो, जिसकी प्रताड़ना की जानी चाहिए उसको प्रताड़ित करे और जिसे निष्कासित किया जाना हो उसे निष्कासित करे? बदले में हम उसे चावल का अंश देंगे— सब लोगों द्वारा चुने जाने के कारण उसे महासम्मत्त की उपाधि प्राप्त होगी। इससे यह ज्ञात होता है कि राजा का पद लोगों द्वारा चुने जाने पर निर्भर करता था। ‘कर’ वह मूल्य था जो लोग राजा की इस सेवा के बदले उसे देते थे। यह मिथक इस बात को भी दर्शाता है कि आर्थिक और सामाजिक संबंधों को बनाने में मानवीय कर्म का बड़ा हाथ था। इसके कुछ और आशय भी हैं। उदाहरणत: यदि मनुष्य स्वयं एक प्रणाली को बनाए रखने के लिए जिम्मेदार थे तो भविष्य में उसमें परिवर्तन भी ला सकते थे।

इतिहासकार और महाभारत


यदि आप इस आलेख के स्रोतों की ओर गौर करें तो आप पाएगे कि इतिहासकार किसी ग्रंथ का विश्लेषण करते समय अनेक पहलुओं पर विचार करते हैं तथा इस बात का परीक्षण करते हैं कि ग्रंथ किस भाषा में लिखा गया : पालि, प्राकृत अथवा तमिल, जो आम लोगों द्वारा बोली जाती थी अथवा संस्कृत जो विशिष्ट रूप से पुरोहितों और खास वर्ग द्वारा प्रयोग में लाई जाती थी। इतिहासकार ग्रंथ के प्रकार पर भी ध्यान देते हैं। क्या यह ग्रंथ ‘मंत्र’ थे जो अनुष्ठानकर्ताओं द्वारा पढ़े और उच्चरित किए जाते थे अथवा ये ‘कथा’ ग्रंथ थे जिन्हें लोग पढ़ और सुन सकते थे तथा दिलचस्प होने पर जिन्हें दुबारा सुनाया जा सकता था? इसके अलावा इतिहासकार लेखक; के बारे में भी जानने का प्रयास करते हैं जिनके दृष्टिकोण और विचारों ने ग्रंथों को रूप दिया। इन ग्रंथों के श्रोताओं का भी इतिहासकार परीक्षण करते हैं क्योंकि लेखकों ने अपनी रचना करते समय श्रोताओं की अभिरुचि पर ध्यान दिया होगा। इतिहासकार ग्रंथ के संभावित संकलन/रचना काल और उसकी रचनाभूमि का भी विश्लेषण करते हैं। इन सब मुद्दों का जायजा लेने के बाद ही इतिहासकार किसी भी ग्रंथ की विषयवस्तु का इतिहास के पुनर्निर्माण के लिए इस्तेमाल करते हैं। महाभारत जैसे विशाल और जटिल ग्रंथ के संदर्भ में, आप कल्पना कर सकते हैं कि यह कार्य कितना कठिन होगा।

  भाषा एवं विषयवस्तु


अब हम ग्रंथ की भाषा की ओर देखते हैं। महाभारत का जो पाठ हम इस्तेमाल कर रहे हैं वह संस्कृत में है ;यद्यपि अन्य भाषाओं में भी इसके संस्करण मिलते हैं। किन्तु महाभारत में प्रयुक्त संस्कृत वेदों अथवा प्रशस्तियों में वर्णित  संस्कृत से कहीं अधिक सरल है। अत: यह संभव है कि इस ग्रंथ को व्यापक स्तर पर समझा जाता था। इतिहासकार इस ग्रंथ की विषयवस्तु को दो मुख्य शीर्षकों आख्यान तथा उपदेशात्मक-के अंतर्गत रखते हैं। आख्यान में कहानियों का संग्रह है और उपदेशात्मक भाग में सामाजिक आचार-विचार के मानदंडों का चित्रण है। किन्तु यह विभाजन पूरी तरह अपने में एकांकी नहीं है-उपदेशात्मक अंशों में भी कहानिया होती हैं और बहुधा आख्यानों में समाज के लिए एक सबक निहित रहता है। अधिकतर इतिहासकार इस बात पर एकमत हैं कि महाभारत वस्तुत: एक भाग में नाटकीय कथानक था जिसमें उपदेशात्मक अंश बाद में जोड़े गए। आरंभिक संस्कृत परंपरा में महाभारत को ‘इतिहास’ की श्रेणी में रखा गया है। इस शब्द का अर्थ है : ‘ऐसा ही था।’ क्या महाभारत में, सचमुच में हुए किसी यद्ध का स्मरण किया जा रहा था? इस बारे में हम निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि स्वजनों के बीच हुए युद्ध की स्मृति ही महाभारत का मुख्य कथानक है। अन्य इस बात की ओर इंगित करते हैं कि हमें युद्ध की पुष्टि किसी और साक्ष्य से नहीं होती।

लेखक-एक या कई और तिथिया


यह ग्रंथ किसने लिखा? इस प्रश्न के कई उत्तर हैं। संभवत: मूल कथा के रचयिता भाट सारथी थे जिन्हें ‘सूत’ कहा जाता था। ये क्षत्रिय योद्धाओं के साथ युद्धक्षेत्र में जाते थे और उनकी विजय व उपलब्धियो के बारे में कविताए लिखते थे। इन रचनाओं का प्रेषण मौखिक रूप में हुआ। पाचवीं शताब्दी ई-पू- से ब्राह्मणों ने इस कथा परंपरा पर अपना अधिकार कर लिया और इसे लिखा। यह वह काल था जब कुरु और पांचाल जिनके इर्द-गिर्द महाभारत की कथा घूमती है, मात्र सरदारी से राजतंत्र के रूप में उभर रहे थे। क्या नए राजा अपने इतिहास को अधिक नियमित रूप से लिखना चाहते थे? यह भी संभव है कि नए राज्यों की स्थापना के समय होने वाली उथल-पुथल के कारण पुराने सामाजिक मूल्यों के स्थान पर नवीन मानदंडों की स्थापना हुई जिनका इस कहानी के कुछ भागों में वर्णन मिलता है। लगभग 200 ई-पू- से 200 ईसवी के बीच हम इस ग्रंथ के रचनाकाल का एक और चरण देखते हैं। यह वह समय था जब विष्णु देवता की आराधना प्रभावी हो रही थी, तथा श्रीकृष्ण को जो इस महाकाव्य के महत्वपूर्ण नायकों में से हैं, उन्हें विष्णु का रूप बताया जा रहा था। कालांतर में लगभग 200-400 ईसवी के बीच मनुस्मृति से मिलते-जुलते बृहत उपदेशात्मक प्रकरण महाभारत में जोड़े गए। इन सब परिवधर्नों के कारण यह ग्रंथ जो अपने प्रारंभिक रूप में संभवत: 10ए000 श्लोकों से भी कम रहा होगा, बढ़ कर एक लाख श्लोकों वाला हो गया। साहित्यिक परंपरा में इस बृहत रचना के रचयिता ऋषि व्यास माने जाते हैं।

 सदृशता की खोज


महाभारत में अन्य किसी भी प्रमुख महाकाव्य की भाति युद्धों, वनों,राजमहलों और बस्तियों का अत्यंत जीवंत चित्रण है। 1951-52 में पुरातत्ववेत्ता बी-बी- लाल ने मेरठ जिले ;उ-प्र के हस्तिनापुर नामक एक गाव में उत्खनन किया। क्या यह गाव महाकाव्य में वर्णित हस्तिनापुर था? हालाकि नामों की समानता मात्र एक संयोग हो सकता है किन्तु गंगा के ऊ…परी दोआब वाले क्षेत्र में इस पुरास्थल का होना जहा कुरु राज्य भी स्थित था, इस ओर इंगित करता है कि यह पुरास्थल कुरुओं की राजधानी हस्तिनापुर हो सकता है ।


प्रत्याख्यान-

यह एक अव्यवसायिक वेबपत्र है जिसका उद्देश्य केवल सिविल सेवा तथा राज्य लोकसेवा की परीक्षाओं मे हिन्दी माध्यम के लोकप्रिय विषय इतिहास लेने वाले प्रतिभागियों का सहयोग करना है। यदि इस वेबपत्र में प्रकाशित किसी भी सामग्री से आपत्ति हो तो इस ई-मेल पते पर सम्पर्क करें-

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संपादक- मिथिलेश वामनकर

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