भारत का इतिहास

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भारतीय इतिहास के प्राचीनतम वैभव की परिकल्पना को तब जोरदार बल मिला जब १९२१ मे दयाराम साहनी द्वारा हड़प्पा की खुदाई की गई।  2500 ई. पू.. के लगभग भारत के उत्तरी पश्चिमी भाग से एक ऐसी विकसित सभ्यता का ज्ञान 1921 ई. में लोगों के समक्ष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नामक दो केन्द्रों की खुदाई से आना आरम्भ हुआ जिसकी तुलना में तत्कालीन विश्व की प्राचीनतम अन्य सभ्यताएं अपने विकास के क्रम में बहुत पीछे छूट जाती है। इस सभ्यता के ज्ञान से भारतीय इतिहास का आद्यैतिहासिक काल बहुत पहले चला जाता है। यह इस देश का गौरव रहा है कि पश्चिमी विश्व जब जंगली सभ्यता के आंचल में ढँका था तो एशिया महाद्वीप के इस भारत देश में एक अत्यन्त विकासमान सभ्य लोग रहते थे। इनका ज्ञान पुस्तकों से नहीं, उनकी लिखित सामाग्रियों से नहीं और न उनके पठनीय लेखों से अपितु वहां कि उत्खनित सामाग्रियों से प्राप्त होता है। उनकी सभ्यता में धर्म का पक्ष अत्यन्त समुन्नत था। एशिया की समकालिक अन्य पुरातन सभ्यताओं मिश्र, बाबुलोनियाँ आदि में धर्म का वह बहुविधीय स्वरूप हमें नहीं मिलता न इतना वैज्ञानिक पैठ ही मिलता है जितना हड़प्पा की सभ्यता में।

इस सभ्यता का उदय सिंधु नदी की घाटी में होने के कारण इसे सिंधु सभ्यता तथा इसके प्रथम उत्खनित एवं विकसित केन्द्र हड़प्पा के नाम पर हड़प्पा सभ्यता एवं आद्यैतिहासिक कालीन होने के कारण आद्यैतिहासिक भारतीय सभ्यता आदि नामों से जानते  हैं। इनका विस्तार बलुचिस्तान, सिन्ध, हरियाणा, गुजरात, पंजाब, राजस्थान, पश्चिमी उत्तरप्रदेश आदि विस्तृत क्षेत्र में था। ऐसा उत्खनन से ज्ञात होता है। इन सभी क्षेत्रों में स्थिति केन्द्रों की खुदाई से समान सभ्यता के अवशेष मिलते है। अतः इस व्यापक भाग में उस समय हड़प्पा धर्म अवश्य ही पल्लवित रहा होगा।

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हड़प्पा धर्म के स्वरूपों के विषय में प्राप्त जानकारी के अनुसार उसकी प्रमुख विशेषताएं निम्न ज्ञात होती हैं-

1.    इस सभ्यता में प्रकृति से चलकर देवत्व तक की यात्रा धर्म ने तय की थी। एक ओर हम वृक्ष पूजा देखते हैं तो दूसरी ओर पशुपति शिव की मूर्ति तथा व्यापक देवी पूजा।

2.    यहाँ देवता और दानव दोनों ही उपास्य थे। देव मूर्तियों के अतिरिक्त अनेक दानवीयस्वरूपों का यहाँ के ठीकड़ों या मुहरों पर आरेखन इस बात का परिचायक है। वृक्ष से लड़ता शेर दानवीय भावना का उदगार ही तो कहा जा सकता है।

3.    धर्म में आध्यात्म और कर्मकाण्ड दोनों ही यहां साथ उभरे हैं। यहाँ से प्राप्त धड़ विहीन ध्यानावसित संन्यासी की आकृति एक ओर आध्यात्मिक चेतना को उजागर करती है तो दूसरी ओर देवी के सम्मुख पशुबलि के लिए बँधे बकरे की आकृति जो ठिकड़े पर अंकित है कर्मकाण्ड की गहनतम भावना का घोतक है।

4.    उपासना इसका एक व्यापक अंग रहा है। नृत्य संगीत आदि के बीच देवी की पूजा को प्रदर्शित करने वाला ठिकड़ा भी यही व्यक्त करता है।

5.    कुछ ऐसे धर्मों की जानकारी यहाँ के ठिकड़ो से मिलती हैं जिसकी सूचना इस सभ्यता के पतन के लगभग एक हजार वर्ष बाद हमें लिखित  साहित्य प्रदान करते हैं जैसे मातृ देवियों की उपासना।

6.    प्रतीकों को धर्म में स्थान प्राप्त हो चुका था। सूर्य की तरह गोल रेखा वाली उभरती आकृति, स्वस्तिक आदि इस तथ्य के पोषक हैं कि भले ही विष्णु की मूर्ति यहाँ नहीं मिली पर वैष्णव धर्म के प्रतीक यहाँ विद्यमान थे।

7.    धार्मिक मान्यता और विश्वासों का यह युग था। यहाँ शिवलिंग के नीचे गड़े ताबीजों की तरह के पत्थर के टुकड़े मिले हैं। जिसके एक किनारे पर छिद्र बने हैं। सम्भवतः शिव के द्वारा अभिमंत्रित करने के लिए ही ये लिंग के के नीचे गाडे़ गये होंगे। अन्य कुछ ठिक़डो में मानव देवताओं के साथ नृत्य संगीत तथा धार्मिक उत्सवों को मना रहे हैं।

8.  मंत्र-तंत्र में भी इनका विश्वास रहा होगा। मुहरों  पर बने चिन्हों के ऊपर कुछ अपठनीय लिपि में लिखा है। इसे कोई चित्रांकित लिपि कहता है, कोई मात्र रेखा समूह मानता है। पर ये मंत्र रहे होगें। कुछ मुहरों पर तो विचित्र रेखाएं बनाई गई हैं मानो आज के जंत्र-तंत्र हो।

9.  लोक-धर्म का भी यहां चलन था। कुछ मुहरों पर घेरों के भीतर वृक्ष में कुछ में फण निकाले नाग की आकृति आदि लोकजीवन की धार्मिक भावना को व्यक्त करते हैं।

प्रमुख धार्मिक स्वरूप

(1)    शैव धर्म

(i) पशुपति मूर्ति :- यहाँ एक मुहर मिली है। इस पर एक तिपाई पर एक व्यक्ति विराजमान है। इसका एक पैर मुड़ा है और एक नीचे की ओर लटका है। इसके तीन सिर हैं तथा सिर पर तिन सींग हैं। इसके हाथ दोनों घुटनो पर हैं तथा इसकी आकृति ध्यानावस्थित है। इसके दोनों ओर पशु हैं। इसकी छाती पर त्रिशूल की आकृति अंकित हैं। मार्शल के अनुसार सिंधुघाटी  से मिली यह मूर्ति आज के शंकर भगवान की है। मैके ने भी इसे शिव की मूर्ति माना है। कुछ लोग इसे पशुपति की मूर्ति मानते हैं। जो भी हो या शिव के पशुपति रूप की मूर्ति निर्विवाद लगती है। इसके तीन सिर शिव के त्रिनेत्र के द्योतक हैं तथा तीन सींघ शिव के त्रिसूल के प्रतीक स्वरूप है।

(ii) नर्तक शिव :- यहाँ से प्राप्त दो कबन्ध प्रस्तर मूर्तियाँ जो पैरों की भावभंगिमा के कारण नृत्य की स्थिति का बोध कराती हैं नर्तक शिव की मानी जाती हैं। कुछ इतिहासकारों ने इन्हें नृत्यमुद्रा में उर्ध्वलिंगी होने का भी अनुमान लगाया है।

(iii) योगी शिव :- यहाँ के एक मुहर पर योग मुद्रा में ध्यान की स्थिति बैठे शिव की आकृति का अंकन है। इसके सामने दो तथा दोनों बगल में बैठी एक-एक सर्प की आकृति बनी है।

(iv) बनचारी शिव :- शिव का एक रूप बनवासी का भी होता है। यहाँ एक मुहर पर तीर-धनुष चलाते हुए एक आकृति मिली है। इसे शिव का बनचारी रूप माना जाता है।
 
(v) लिंग पूजा :- बड़े तथा छोटे शिव लिंग यहाँ बहुत से मिले हैं। कुछ के ऊपर छेद हैं जैसे ये धागा में पिरोकर गले में पहनने के काम आते होंगे। बड़े लिंग चूना पत्थर और छोटे घोंघे के बने हैं। इनकी पूजा विभिन्न समुदायों द्वारा भिन्न-भिन्न प्रकार से करने का अनुमान लगाया जा सकता है।

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इन विविध प्रकार की शिव मूर्तियों की प्राप्ति के आधर पर अनुमान किया जा सकता है कि

(अ) शिव आर्यों के पूर्व भारत के मूल निवासियों, जंगली कबीलों तथा आर्येतर जातियों के देवता प्रारम्भ से रहे हैं। इसी से इनका रंग काला था  जबकि आर्य गौर वर्ण के थे। अगर यह आर्यों के देवता रहे होते तो इनका भी रंग गोरा ही वर्णित होता। इसकी पुष्टि इस बात से भी होती है कि जंगली पशु उनके साथ जुड़े हैं जैसे सर्प, सांढ़ आदि। जंगली कबीलों के लोग शक्तिशाली होते हैं तभी शिव शक्ति के देवता के रूप में भी भारतीय जीवन में घुल-मिले हैं। इनके साथ लगा होता है वाहन नन्दी, बैल जो शक्ति का प्रतीक है। सांप भी इसी प्रकार का एक जुझारू जीव इनके साथ जुड़ा है। ये बलशाली और वन्य पशु हैं जो शिव के साथ जुड़े होते हैं।

(ब) शिव को उत्पादन के देवता के रूप में भी पूजा जाता था। शिव के साथ सांढ़ का साहचर्य उनके उस काल के उत्पादक देवता होने का बोधक है । आज भी कृषि में उत्पादन के लिए सांढ़ों तथा बैलों का प्रयोग किया जाता है। शिवलिंग का यहाँ मिलना डॉ.डी.डी. कौशम्बी के अनुसार, उत्पादन का द्योतक है।

(स) प्राचीन भारत में शिवपूजा का श्रीगणेश हड़प्पा निवासियों के समय से ही माना जाता सकता है। शिव के विविध रूप मानवाकृति, लिंगायत, पशुपति आदि इसी समय से प्रचलन में आ चुके थे। यही पीछे चलकर हिन्दू शैव परिवार में अलग-अलग धार्मिक सम्प्रदायों के रूप में प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिए।

(द) योग मुद्रा की शिव मूर्तियों से स्पष्ट है कि योग क्रिया का विकास भी शिव के साथ जुड़ा है। यह मान्यता है कि उनकी योगसाधना अनादिकाल से चली आ रही है। योग कि विधि का भी बहुत कुछ ज्ञान यहां से उनकी प्राप्त विभिन्न योग मुद्राओं की मूर्तियों से परिलक्षित होता है। यहाँ से आगे चलकर पशुपति योग का विकास हुआ। यहाँ से प्राप्त संन्यासी की धड़ मूर्ति जिसकी आंखें अर्ध निमीलित हैं, ध्यान केन्द्रित है तथा उसकी आंखे नासिकाग्र पर टिकी हैं आदि विशेषताएं ही योग साधना का पहला आधार बना होगा। यही योग का पहला चरण है। अतः योग का प्रारम्भ भी शैव धर्म का देन रहा होगा।

(य) शंकर का नाम पौराणिक काल में भूतनाथ प्रसिद्ध हुआ। पर भूत-प्रेतों के प्रति लोगों का विश्वास सिंधु सभ्यता के समय से ही उभर चुका था और सम्भव है कि उस समय शंकर ही उनके स्वामी रहे हों। तब भी शुभ-अशुभ प्रभावों की मान्यताएं थीं। इनसे बचने के लिए योनिपूजा भी सिन्धु सभ्यता में प्रचिलित थी। कुछ विशिष्ट बीमारियों का संकेत यहां से उपचारात्मक सामग्रियों के प्राप्ति से होती है जैसे बारहसिंगे की सींग का भस्म आदि इनसे छुटकारा पाने के लिए ही छोटे-छोटे लिंगों को योनि के साथ ताबीज की तरह गले में धारण करते होंगे। इसी से सिंधु घाटी में बहुत से ऐसे योनि युक्त शिवलिंग के तरह की कोणाकार पत्थर का आकृतियां मिली हैं जिनके ऊपरी भाग में सम्भवतः धागा पिरोने के लिए छिद्र बने हैं। इससे यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि बीमारियों का सम्बन्ध भी तब शिव से माना जाता होगा तथा उनके उपचार के लिए शिवलिंग का धारण करना टोटका के रूप में मानते होंगे।

(2) वैष्णव धर्म

स्पष्ट से तो नहीं कहा जा सकता है कि हड़प्पावासी वैष्णव धर्म को मानते थे क्योंकि विष्णु या उनके अवतारों की मूर्तियां यहां नहीं मिली हैं। पर वहाँ से प्राप्त कुछ मुहरों पर बनी स्वस्तिक की आकृति तथा सूर्य का चिन्ह इस बात का द्योतक है कि पीछे वैष्णव सम्प्रदाय के विकास के साथ जुड़ने वाले ये प्रतीक बीज रूप में जुड़े थे। अतः वैष्णव सम्प्रदाय वहां अस्तित्व में भले ही विकसित रूप में न आया हो पर इसका बीजारोपण इस समय हो चुका था इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता।

(2)    शाक्य सम्प्रदाय

शक्ति पूजा प्राची विश्व की प्रायः सभी सभ्यताओं में होती रही है तभी शक्ति को आदिशक्ति माना जाता है। सिंधुघाटी से भी देवी की उपासना के चिन्ह प्राप्त होते हैं। सिन्धु सभ्यता में एक मुहर पर अंकित एक स्त्री की नाभि से निकला हुआ कमलनाल दिखाया गया है। यह उत्पादन एवं उर्वरता का बोधक होता है। शक्ति की उपासना पृथ्वी पूजा से जुड़ी है। वहीं से मातृदेवी की उपासना का प्रारम्भ माना जाता है। यहाँ इन सभी का सम्बन्ध पृथ्वी देवी से और पौधों का सम्बन्ध उर्वरता तथा सृजनशीलता से जोड़ा जा सकता है। इसी प्रकार की एक मूर्ति प्राप्त हुई है जिसमें देवी पालथी मारे बैठी है  और उनके दोनों ओर पुजारी भी बैठे हैं तथा इसके सिर पर एक पीपल  का वृक्ष उगा है। इसको भी उत्पादकता का ही प्रतीक माना जा सकता है। इसके अतिरिक्त बड़ी संख्या में मातृदेवियों की मूर्तियों का यहां मिलना द्योतक है कि ये लोग देवी के उपासक थे इनकी देवियाँ अविवाहित कन्याएँ होती थीं क्योंकि उनके स्तन सामान्य उभार के तथा गोल और अविकसित दीखते हैं। अनेक प्रकार के आभूषणों तथा केशविन्यास से सज्जित देवियों को देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विविध देवियों की मान्यता यहाँ रही होगी अन्यथा सर्वत्र एक ही प्रकार की देवी मूर्तियाँ प्राप्त होतीं। एक बात और ज्ञात होती है कि ये प्रकृति को मातृदेवी के रूप में मानते थे तभी देवियों के साथ प्रकृति अवयव यहाँ जुड़ा मिला है। प्रकृति के ही सहारे जीव का पोषण होता है सम्भवतः ऐसा इनका विश्वास था।

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एक मुहर पर सात औरतों की खड़ी आकृतियाँ  बनी हैं और उनके सामने एक बकरा बँधा है जिसके पीछे लोग ढोल बजाते हुए नाच रहे हैं। देवी उपासना की पौराणिक परम्परा में सप्तमातृका एवं नवमातृका के उपासना का वर्णन मिलता है। यहाँ भी सप्तमातृका के उपासना का बोध होता है इस मुहर पर सात औरतों का अंकन इसका बोधक है। दूसरी ओर पौराणिक शाक्तधर्म में देवी के लिए पशुबली की मान्यता समाज  में प्रचिलित है। यहाँ एक मुहर पर बँधा बकरा बलि के लिए उपस्थिति प्रतीत होता है। पौराणिक देवी पूजन का आरम्भ इसे मान सकते हैं। यहाँ से प्राप्त नारी मूर्तियों में एक विशेषता मुख्य रूप से दीखती है  कि वे निर्वस्त्र हैं। निर्वस्त्रता प्रकृति के खुलेपन तथा उत्पादन का बोधक है। इससे हम कह सकते हैं कि ये प्रकृति को मातृदेवी मानकर उपासना करते थे इनकी पुष्टि यहां के एक मुहर पर प्राप्त एक देवी की मूर्ति से होती है जिसके सिर पर चील की तरह एक पक्षी पंख फैलाए बैठा है। लगता है कि वह मातृदेवी की रक्षा कर रहा हो।

(3) वृक्ष-पूजा

पौराणिक काल से पीपल, नीम, आंवला आदि वृक्षों की पूजा समाज में की जाती है तथा इससे सम्बन्धित अनेक त्योहारों की मान्यता भी दी गई है। सिंधु घाटी की सभ्यता में भी वृक्ष पूजा का चलन था तभी वहाँ से प्राप्त ठीकरों पर अनेक वृक्षों की आकृतियाँ अंकित हैं। इनसे पत्तों के आधार पर पीपल के वृक्ष की पहचान तो हो जाती है पर यह असंभव नहीं कि इसी प्रकार अन्य वृक्षों की भी महत्ता इस समय रही हो। एक ठिकड़े पर बनी आकृति में एक सींगवाले पशु के दो सिर बने हैं जिनके ऊपर पीपल की कोमल पत्तियाँ फूटती हुई दीखती हैं। दीर्घायु, स्वास्थ्य के लिए लाभकारी होने के कारण आज की तरह उस, समय भी संभवतः पूज्य मान लिया गया होगा। सम्भवतः तब से अब तक उसकी धार्मिक महत्ता बनी रही।

 ऋग्वेद में अश्वत्थ की महत्ता का उल्लेख भी पीपल का ही बोधक है। दूसरी मुहर पर देवता की नग्न मूर्ति बनी है। उनके दोनों ओर पीपल की दो शाखाएं अंकित हैं। यहां की एक मुहर वन्दना की मुद्रा में झुकी एक मूर्ति है जिसके बाल लम्बे हैं। उसके पीछे मानव के चेहरे वाले वृष तथा बकरे की मिली जुली आकृति अंकित है। सामने पीपल का पेड़ है लगता है कि ये पशु वृक्ष देवता के वाहन के रूप में अंकित किए गए हैं। शुंगकला में सांची तथा भरहुत में ऐसे वृक्ष देवियों की अनेक आकृतियाँ अंकित हैं जिन्हें दोहद की अवस्था में अंकित यक्षिणी कहा जाता है। इन भिन्नताओं के आधार पर डॉ. मुखर्जी के अनुसार वहां पर दो प्रकार की वृक्ष-पूजा प्रचलित थी-एक वृक्ष की पूजा तथा दूसरे वृक्ष अधिदेवता की पूजा।

(4) पशु-पूजा

वहां कि मुहरों पर अनेक प्रकार के पशुओं का अंकन मिला है। विविधता और संख्या में पशु अंकन की अधिकता को देखकर ऐसा लगता है कि ये पशुओं को देवता का अंश मानते थे। यह विश्वास है कि पहले पशुओं के रूप में देवताओं को स्वीकार किया जाता था। पीछे इनका मावनवीय रूप अंगीकार किया गया। इसीसे देवता प्रत्येक पुरातन सभ्यता में पशु-पूजा का चलन मिलता है। इसका प्रमाण है कि प्रायः प्रत्येक देवता के साथ एक वाहन का जुड़ा होना आज भी स्वीकार किया जाता है। दूसरे इस सभ्यता में हम देखते हैं मनुष्यों के रूप में निर्मित देवताओं के सिर पर सींग धारण करने की कल्पना यहां किया गया था। सींग को शक्ति का प्रतीक माना जाता था इसीसे इसको मानव रूप धारी देव भी कहते थे। इसीलिए आज जिन्हें हम देवतावाहन मानते हैं जैसे-गैंडा, बैल, हाथी, भैंस, कुत्ता आदि इनके भी चित्रण यहां की मुहरों पर मिलते हैं।

बैल की पूजा विशेष रूप से यहां होती होगी क्योंकि इसके विविध प्रकारों का अंकन यहां के मुहरों पर बहुतायाद से दीखता है जैसे एक श्रृंगी, कूबड़दार, लम्बी लटकी लोरदार आदि। लगता है शिव के साथ बैल का सम्बन्ध इसी सभ्यता से शुरू हुआ था क्योंकि यहां इन दोनों की साथ आकृतियाँ मुहरों पर बहुलता से अंकित मिलती हैं। कुछ पशु ऐसे भी बने हैं जो काल्पनिक प्रतीत होते हैं। आज भी उनका वास्तविक शिवरूप प्राप्त नहीं होता। इनमें हम ऐसे पशुओं को ले सकते हैं जिनकी रचना विभिन्न पशुओं के अंगों के योग से की गई हैं। अन्यथा ये मानव और पशु की मिली जुली मूर्ति हों। एक ठिकड़े पर मानव सिर से युक्त बकरे की आकृति है। एक पर ऐसा पशु है जिसका सिर गैंडे का पीठ किसी दूसरी पशु की पूंछ किसी अन्य पशु की है। कुछ पशुओं की ऐसी आकृतिया यहां बनी हैं जिनके सामने नाद बना है और वे उसमें से कुछ खाते हुए दीखते हैं। कितने पशुओं की खोपड़ी धूपदानी की तरह कटोरानुमा बनी है। इनमें सम्भवतः पूजा के समय धूप जलाया जाता होगा क्योंकि उनके किनारों पर धुंए के चिन्ह पड़े हैं। लगता है कि पशु-पूजन में धूप जलाने का भी प्रचलन था।

(5)    जैन धर्म

सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियाँ विशेष रूप से मिलती हैं। ‘वृषभ’ का अर्थ है बैल। आदिनाथ या वृषभनाथ जो जैन धर्म के प्रवर्तक थे उनका चिन्ह बैल है। सिंधु घाटी से प्राप्त बैल की आकृति सूचक है कि उस समय जैनधर्म का बीजारोपण हो चुका होगा। यहां से प्राप्त एक नंगी कबन्ध मूर्ति जो ग्रेनाइट पत्थर की बनी है उसे कुछ विद्वान जैन धर्म से सम्बन्धित मूर्ति मानते हैं क्योंकि जैनियों कि नग्न मूर्तियों की तरह यह है। दिगम्बर समुदाय वाले जैन भिक्षु नग्न ही रहते हैं। तीसरे यहां की एक मूर्ति को मार्शल ने कार्योत्सर्ग नामक योगासन में खड़ा बतलाया है। इससे लगता है कि योग की क्रिया जो जैनियों में व्यापक थी यहीं से प्रारम्भ हुई। इसलिए भी यह माना जा सकता है कि उक्त मूर्ति का सम्बन्ध जैन धर्म से रहा होगा।

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मान्यता और विश्वास

(अ)-स्वच्छता– इसके ये पुजारी थे। इसी से यहां विशाल स्नानागार तथा गर्म स्नानागार बने हैं। ये सामूहिक स्नान के लिए बनाए गए। व्यक्तिगत स्नान के लिए प्रत्येक घर के आंगन में स्नानगृह होता था। लगता है उत्सवों तथा पर्वों पर आज के पौराणिक धर्म की मान्यता की तरह लोग सामूहिक स्नान करते होंगे। तभी विशाल स्नान घर की आवश्यता पड़ी होगी।

(ब) मृतक संस्कार– मृतक क्रिया में इनका विश्वास था। मरने के बाद ये शरीर की क्रिया करते थे। उसे गाड़ते या जलाते थ। जलाने के बाद बची हुई हड्डियों को एकत्रित करके किसी बर्तन में रखकर उसे प्रवाहित कर देते थे। कभी-कभी तो इसे गाड़ भी देते थे। जिन मृतकों को गाड़ते थे उनके साथ उनकी प्रिय वस्तुएं भी गाड़ दी जाती थीं। यही प्रथा प्राचीन मिश्र के पिरामिडों में भी दीखती है। इसका प्रमाण है कि हड़प्पा और बलुचिस्तान में सर्वांगीण शव-निखात प्राप्त हुए हैं।

(स) जादू-टोना– यहां से प्राप्त टिकटों पर कुछ लिखा हुआ है। लगता है ये जादुई मंत्र होंगे। इनके द्वारा लोग अपने कार्यों को सिद्ध करते होंगे। इसी प्रकार लिंगों के नीचे गड़े ताबीज जिन पर कुछ अंकित है जादू की क्रिया का होना सिद्ध करते हैं। सम्भव है ये ताबीजों को इसलिए पहनते होंगे कि भवबाधा इन्हें न सतावे। इसी प्रकार कुछ ऐसे ठिकड़े भी मिले हैं जिन पर विचित्र प्रकार के चिन्ह बने हैं। ये तांत्रिक चिन्हों की तरह हैं जिस प्रकार का प्रयोग आज तंत्र में होता है। लगता है कि इनको विश्वास था कि इनके द्वारा बाधाओं के निराकरण में सहायता मिलती है।

(द) बलि प्रथा– देवताओं को प्रसन्न करने के लिए बलि का प्रयोग किया जाता था। इसके संदर्भ में जैसा हमने ऊपर देखा है कि सप्तमातृकाओं के सामने एक बकरा बंधा है, यह बलि पशु ही रहा होगा।

(ग) धार्मिक पर्व और उत्सव – यहां कुछ मुहरों पर नृत्य,. संगीत के सामूहिक अवस्था का अंकन हुआ है। लगता है किसी विशेष उत्सव या पर्व पर इस प्रकार के सामूहिक आमोद-प्रमोद की अवस्था का चलन था। सामूहिक स्नान के लिए जलकुण्डों का होना सिद्घ करता है कि उस समय पर्व मनाए जाते थे जहां लोग एक साथ एकत्रित होकर आज की पौराणिक मान्यता की तरह सामाजिक रूप से स्नान आदि धार्मिक क्रियाएं करते होंगे।


प्रत्याख्यान-

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संपादक- मिथिलेश वामनकर

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