असहयोग आंदोलन
Posted फ़रवरी 13, 2009
on:असहयोग की शुरुआत और अंत
1917 का अधिकांश समय महात्मा गाँधी को किसानों के लिए काश्तकारी की सुरक्षा के साथ-साथ अपनी पसंद की फ़सल उपजाने की आजादी दिलाने में बीता। अगले वर्ष यानी 1918 में गाँधी जी गुजरात के अपने गृह राज्य में दो अभियानों में संलग्न रहे। सबसे पहले उन्होंने अहमदाबाद के एक श्रम विवाद में हस्तक्षेप कर कपड़े की मिलों में काम करने वालों के लिए काम करने की बेहतर स्थितियों की माँग की। इसके बाद उन्होंने खेड़ा में फ़सल चौपट होने पर राज्य से किसानों का लगान माफ़ करने की माँग की। चंपारन, अहमदाबाद और खेड़ा में की गई पहल से गाँधी जी एक ऐसे राष्ट्रवादी के रूप में उभरे जिनमें गरीबों के लिए गहरी सहानुभूति थी। इसी तरह ये सभी स्थानिक संघर्ष थे। इसके बाद 1919 में औपनिवेशिक शासकों ने गाँधी जी की झोली में एक ऐसा मुद्दा डाल दिया जिससे वे कहीं अधिक विस्तृत आंदोलन खड़ा कर सकते थे।
1914-18 के महान युद्ध के दौरान अंग्रेजों ने प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया था और बिना जाँच के कारावास की अनुमति दे दी थी। अब सर सिडनी रॉलेट की अध्यक्षता वाली एक समिति की संस्तुतियों के आधार पर इन कठोर उपायों को जारी रखा गया। इसके जवाब में गाँधी जी ने देशभर में ‘रॉलेट एक्ट’ के खिलाफ़ एक अभियान चलाया। उत्तरी और पश्चिमी भारत के कस्बों में चारों तरफ़ बंद के समर्थन में दुकानों और स्कूलों के बंद होने के कारण जीवन लगभग ठहर सा गया था। पंजाब में, विशेष रूप से कड़ा विरोध हुआ, जहाँ के बहुत से लोगों ने युद्ध में अंग्रेजों के पक्ष में सेवा की थी और अब अपनी सेवा के बदले वे ईनाम की अपेक्षा कर रहे थे। लेकिन इसकी जगह उन्हें रॉलेट एक्ट दिया गया। पंजाब जाते समय गाँधी जी को कैद कर लिया गया। स्थानीय कांग्रेसजनों को गिरफ़तार कर लिया गया था। प्रांत की यह स्थिति धीरे-धीरे और तनावपूर्ण हो गई तथा अप्रैल 1919 में अमृतसर में यह खूनखराबे के चरमोत्कर्ष पर ही पहुँच गई। जब एक अंग्रेज ब्रिगेडियर ने एक राष्ट्रवादी सभा पर गोली चलाने का हुक्म दिया तब जलियाँवाला बाग हत्याकांड के नाम से जाने गए इस हत्याकांड में चार सौ से अधिक लोग मारे गए।
रॉलेट सत्याग्रह से ही गाँधी जी एक सच्चे राष्ट्रीय नेता बन गए। इसकी सफ़लता से उत्साहित होकर गाँधी जी ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ़ ‘असहयोग’ अभियान की माँग कर दी। जो भारतीय उपनिवेशवाद का ख्त्म़ करना चाहते थे उनसे आग्रह किया गया कि वे स्कूलो, कॉलेजो और न्यायालय न जाएँ तथा कर न चुकाएँ। संक्षेप में सभी को अंग्रेजी सरकार के साथ ;सभी ऐच्छिक संबंधो के परित्याग का पालन करने को कहा गया। गाँधी जी ने कहा कि यदि असहयोग का ठीक ढंग से पालन किया जाए तो भारत एक वर्ष के भीतर स्वराज प्राप्त कर लेगा। अपने संघर्ष का और विस्तार करते हुए उन्होंने खिलाप्फ़ात आंदोलन के साथ हाथ मिला लिए जो हाल ही में तुर्की शासक कमाल अतातुर्क द्वारा समाप्त किए गए सर्व-इस्लामवाद के प्रतीक खलीफ़ा की पुनर्स्थापना की माँग कर रहा था।
2-1 एक लोकप्रिय आंदोलन की तैयारी
गाँधी जी ने यह आशा की थी कि असहयोग को खिलाफ़त के साथ मिलाने से भारत के दो प्रमुख समुदाय- हिन्दू और मुसलमान मिलकर औपनिवेशिक शासन का अंत कर देंगे। इन आंदोलनों ने निश्चय ही एक लोकप्रिय कार्रवाही के बहाव को उन्मुक्त कर दिया था और ये चीजें औपनिवेशिक भारत में बिलकुल ही अभूतपूर्व थीं। विद्यार्थियों ने सरकार द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों और कॉलेजों में जाना छोड़ दिया। वकीलों ने अदालत में जाने से मना कर दिया। कई कस्बों और नगरों में श्रमिक-वर्ग हड़ताल पर चला गया। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक 1921 में 396 हड़तालें हुई जिनमें 6 लाख श्रमिक शामिल थे और इससे 70 लाख कार्यदिवसों का नुकसान हुआ था। देहात भी असंतोष से आंदोलित हो रहा था। पहाड़ी जनजातियों ने वन्य कानूनों की अवहेलना कर दी। अवधि के किसानों ने कर नहीं चुकाए। कुमाउँ के किसानों ने औपनिवेशिक अधिकारियों का सामान ढोने से मना कर दिया। इन विरोधि आंदोलनों को कभी-कभी स्थानीय राष्ट्रवादी नेतृत्व की अवज्ञा करते हुए कार्यान्वयित किया गया। किसानों, श्रमिकों और अन्य ने इसकी अपने ढंग से व्याख्या की तथा औपनिवेशिक शासन के साथ ‘असहयोग’ के लिए उन्होंने उपर से प्राप्त निर्देशों पर टिके रहने के बजाय अपने हितों से मेल खाते तरीकों का इस्तेमाल कर कार्रवाही की।
महात्मा गाँधी के अमरीकी जीवनी-लेखक लुई फ़िशर ने लिखा है कि ‘असहयोग भारत और गाँधी जी के जीवन के एक युग का ही नाम हो गया। असहयोग शांति की दृष्टि से नकारात्मक
किन्तु प्रभाव की दृष्टि से बहुत सकारात्मक था। इसके लिए प्रतिवाद, परित्याग और स्व-अनुशासन आवश्यक थे। यह स्वशासन के लिए एक प्रशिक्षण था।’ 1857 के विद्रोह के बाद पहली बार असहयोग आंदोलन के परिणामस्वरूप अंग्रेजी राज की नींव हिल गई।
फ़रवरी 1922 में किसानों के एक समूह ने संयुक्त प्रांत के चौरी-चौरा पुरवा में एक पुलिस स्टेशन पर आक्रमण कर उसमें आग लगा दी। इस अग्निकांड में कई पुलिस वालों की जान चली गई। हिंसा की इस कार्यवाही से गाँधी जी को यह आंदोलन तत्काल वापस लेना पड़ा। उन्होंने जोर दिया कि, ‘किसी भी तरह की उत्तेजना को निहत्थे और एक तरह से भीड़ की दया पर निर्भर व्यक्तियों की घृणित हत्या के आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता है’।
असहयोग आंदोलन के दौरान हजारों भारतीयों को जेल में डाल दिया गया। स्वयं गाँधी जी को मार्च 1922 में राजद्रोह के आरोप में गिरफ़तार कर लिया गया। उन पर जाँच की कार्रवाही की अध्यक्षता करने वाले जज जस्टिस सी- एन- ब्रूमफ़ील्ड ने उन्हें सजा सुनाते समय एक महत्वपूर्ण भाषण दिया। जज ने टिप्पणी की कि, इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि मैने आज तक जिनकी जाँच की है अथवा करूँगा आप उनसे भिन्न श्रेणी के हैं। इस तथ्य को नकारना असंभव होगा कि आपके लाखों देशवासियों की दृष्टि में आप एक महान देशभक्त और नेता हैं। यहाँ तक कि राजनीति में जो लोग आपसे भिन्न मत रखते हैं वे भी आपको उच्च आदशो और पवित्र जीवन वाले व्यक्ति के रूप में देखते हैं। चूँकि गाँधी जी ने कानून की अवहेलना की थी अत: उस न्याय पीठ के लिए गाँधी जी को 6 वर्षों की जेल की सजा सुनाया जाना आवश्यक था। लेकिन जज ब्रूमफ़ील्ड ने कहा कि ‘यदि भारत में घट रही घटनाओं की वजह से सरकार के लिए सजा के इन वर्षों में कमी और आपको मुक्त करना संभव हुआ तो इससे मुझसे ज्यादा कोई प्रसन्न नहीं होगा।
4 Responses to "असहयोग आंदोलन"
जानकारीभरे लेख के लिए धन्यवाद
rastogi.jagranjunction.com
I M VERY INTRESTED BY READ ITS KNOWLEDGE…..SHAILENDRA TIWARI
mere samajh se atulniye lekh thanks alot
1 | हिमांशु
जून 1, 2009 at 11:23 पूर्वाह्न
मुझे ये आर्टिकल पड़ के काफी खुशी हुई जो इतिहास मैं भुल गया था, उसे तरोताजा करने का मौका मिला। अत आपसे ये आग्रह है कि ऐसै ही इतिहास के पन्नों को ऑनलाइन प्रकाशिक करते रहें।
धन्यवाद